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मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि
कर्मभूमि
तीसरा भाग - आठ
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डॉक्टर साहब ने कुर्सी से उठते हुए कहा-उसे गए तो दो महीने हो गए, आएगी कब तक-
'यहां से तो कई बार बुलाया गया, सेठ धानीराम बिदा ही नहीं करते।'
'नैना खुश तो है?'
'मैं तो कई बार मिली पर अपने विषय में उसने कुछ न कहा। पूछा, तो यही बोली-मैं बहुत अच्छी तरह हूं। पर मुझे तो वह प्रसन्न नहीं दिखी। वह शिकायत करने वाली लड़की नहीं है। अगर वह लोग लातों से मारकर निकालना भी चाहें, तो घर से न निकलेगी, और न किसी से कुछ कहेगी।'
शान्तिकुमार की आंखें सजल हो गईं-उससे कोई अप्रसन्न हो सकता है, मैं तो इसकी कल्पना ही नहीं कर सकता।
सुखदा मुस्कराकर बोली-उसका भाई कुमार्गी है, क्या यह उन लोगों की अप्रसन्नता के लिए काफी नहीं है-
'मैंने तो सुना, मनीराम पक्का शोहदा है।'
'नैना के सामने आपने वह शब्द कहा होता, तो आपसे लड़ बैठती।'
'मैं एक बार मनीराम से मिलूंगा जरूर।'
'नहीं आपके हाथ जोड़ती हूं। आपने उनसे कुछ कहा, तो नैना के सिर जाएगी।'
'मैं उससे लड़ने नहीं जाऊंगा। मैं उसकी खुशामद करने जाऊंगा। यह कला जानता नहीं पर नैना के लिए अपनी आत्मा की हत्या करने में भी मुझे संकोच नहीं है। मैं उसे दु:खी नहीं देख सकता। नि:स्वार्थ सेवा की देवी अगर मेरे सामने दु:ख सहे, तो मेरे जीने को धिक्कार है।
शान्तिकुमार जल्दी से बाहर निकल आए। आंसुओं का वेग अब रोके न रूकता था।
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