मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

तीसरा भाग - दस

पेज- 170

'आप इन व्यापार संबंधी समस्याओं को नहीं समझ सकतीं। बड़े-बड़े मिलों के एजेंट आते हैं। अगर मेरी स्त्री उनसे बातचीत कर सकती, तो कुछ-न-कुछ कमीशन रेट बढ़ जाता। यह काम तो कुछ औरत ही कर सकती हैं।'
'मैं तो कभी न करूं। चाहे सारा कारोबार जहन्नुम में मिल जाए।'
'विवाह का अर्थ जहां तक मैं समझा हूं वह यही है कि स्त्री पुरुष की सहगामिनी है। अंग्रेजों के यहां बराबर स्त्रियां सहयोग देती हैं।'
'आप सहगामिनी का अर्थ नहीं समझे।'
मनीराम मुंह फट था। उसके मुसाहिब इसे साफगोई कहते थे। उसका विनोद भी गाली से शुरू होता था और गाली तो गाली थी ही। बोला-कम-से-कम आपको इस विषय में मुझे उपदेश करने का अधिकार नहीं है। आपने इस शब्द का अर्थ समझा होता, तो इस वक्त आप अपने पति से अलग न होतीं और न वह गली-कूचों की हवा खाते होते।
सुखदा का मुखमंडल लज्जा और क्रोध से आरक्त हो उठा। उसने कुर्सी से उठकर कठोर स्वर में कहा-मेरे विषय में आपको टीका करने का कोई अधिकार नहीं है, लाला मनीराम जरा भी अधिकार नहीं है। आप अंग्रेजी सभ्यता के बड़े भक्त बनते हैं। क्या आप समझते हैं कि अंग्रेजी पहनावा और सिगार ही उस सभ्यता के मुख्य अंग हैं- उसका प्रधान अंग है, महिलाओं का आदर और सम्मान। वह अभी आपको सीखना बाकी है। कोई कुलीन स्त्री इस तरह आत्म-सम्मान खोना स्वीकार न करेगी।
उसका फर्जन सुनकर सारा घर थर्रा उठा और मनीराम की तो जैसे जबान बंद हो गई। नैना अपने कमरे में बैठी हुई भावज का इंतजार कर रही थी, उसकी गरज सुनकर समझ गई, कोई-न कोई बात हो गई। दौड़ी हुई आकर बड़े कमरे के द्वार पर खड़ी हो गई।
'मैं तुम्हारी राह देख रही थी भाभी, तुम यहां कैसे बैठ गईं?'
सुखदा ने उसकी ओर ध्‍यान न देकर उसी रोष में कहा-धन कमाना अच्छी बात है, पर इज्जत बेचकर नहीं। और विवाह का उद्देश्य वह नहीं है जो आप समझे हैं। मुझे आज मालूम हुआ कि स्वार्थ में पड़कर आदमी का कहां तक पतन हो सकता है ।
नैना ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे उठाती हुई बोली-अरे, तो यहां से उठोगी भी।

 

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