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मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि
कर्मभूमि
तीसरा भाग - ग्यारह
पेज- 176
आप बोले- उफ़्फ़ोह, इस रूप पर इतना अभिमान ।
मेरी देह में आग लग गई। कोई जवाब न दिया। ऐसे आदमी से बोलना भी मुझे अपमानजनक मालूम हुआ। मैंने अंदर आकर किवाड़ बंद कर लिए, और उस दिन से फिर न बोली। मैं तो ईश्वर से यही मनाती हूं कि वह अपना विवाह कर लें और मुझे छोड़ दें। जो स्त्री में केवल रूप देखना चाहता है, जो केवल हाव-भाव और दिखावे का गुलाम है, जिसके लिए स्त्री केवल स्वार्थ सिद्ध साधन है, उसे मैं अपना स्वामी नहीं स्वीकार कर सकती।
सुखदा ने विनोद-भाव से पूछा-लेकिन तुमने ही अपने प्रेम का कौन-सा परिचय दिया। क्या विवाह के नाम में इतनी बरकत है कि पतिदेव आते-ही-आते तुम्हारे चरणों पर सिर रख देते -
नैना गंभीर होकर बोली-हां, मैं तो समझती हूं, विवाह के नाम में ही बरकत है। जो विवाह को धर्म का बंधन नहीं समझता है, इसे केवल वासना की तृप्ति का साधन समझता है, वह पशु है।
सहसा शान्तिकुमार पानी में लथपथ आकर खड़े हो गए।
सुखदा ने पूछा-भीग कहां गए, क्या छतरी न थी-
शान्तिकुमार ने बरसाती उतारकर अलगनी पर रख दी, और बोले-आज बोर्ड का जलसा था। लौटते वक्त कोई सवारी न मिली।
'क्या हुआ बोर्ड में- हमारा प्रस्ताव पेश हुआ?'
'वही हआ, जिसका भय था।'
'कितने वोटों से हारे।'
'सिर्फ पांच वोटों से। इन्हीं पांचों ने दगा दी। लाला धानीराम ने कोई बात उठा नहीं रखी।'
सुखदा ने हतोत्साह होकर कहा-तो फिर अब-
'अब तो समाचार-पत्रों और व्याख्यानों से आंदोलन करना होगा।'
सुखदा उत्तोजित होकर बोली-जी नहीं, मैं इतनी सहनशील नहीं हूं। लाला धानीराम और उनके सहयोगियों को मैं चैन की नींद न सोने दूंगी। इतने दिनों सबकी खुशामद करके देख लिया। अब अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ेगा। फिर दस-बीस प्राणों की आहुति देनी पड़ेगी, तब लोगों की आंखें खुलेंगी। मैं इन लोगों का शहर में रहना मुश्किल कर दूंगी।
शान्तिकुमार लाला धानीराम से जले हुए थे। बोले-यह उन्हीं सेठ धानीराम के हथकंडे हैं।
सुखदा ने द्वेष भाव से कहा-किसी राम के हथकंडे हों, मुझे इसकी परवाह नहीं। जब बोर्ड ने एक निश्चय किया, तो उसकी जिम्मेदारी एक आदमी के सिर नहीं, सारे बोर्ड पर है। मैं इन महल-निवासियों को दिखा दूंगी कि जनता के हाथों में भी कुछ बल है। लाला धानीराम जमीन के उन टुकड़ों पर अपने पांव न जमा सकेंगे।
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