मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

तीसरा भाग - बारह

पेज- 187

समरकान्त ने जीवन भर में कभी हार न मानी थी पर आज वह इस अभिमानिनी रमणी के सामने परास्त खड़े थे। उसके शब्दों ने जैसे उनके मुंह पर जाली लगा दी। उन्होंने सोचा-स्त्रियों को संसार अबला कहता है। कितनी बड़ी मूर्खता है। मनुष्य जिस वस्तु को प्राणों से भी प्रिय समझता है, वह स्त्री की मुट्ठी में है।
उन्होंने विनय के साथ कहा-लेकिन अभी तुमने भोजन भी तो नहीं किया। खड़ी मुंह क्या ताकती है नैना, क्या भंग खा गई है जा, बहू को खाना खिला दे। अरे ओ महराज। महरा। यह ससुरा न जाने कहां मर रहा- समय पर एक भी आदमी नजर नहीं आता। तू बहू को ले जा रसोई में नैना, मैं कुछ मिठाई लेता आऊं। साथ-साथ कुछ खाने को तो ले जाना ही पड़ेगा।
कहार ऊपर बिछावन लगा रहा था। दौड़ा हुआ आकर खड़ा हो गया। समरकान्त ने उसे जोर से एक धौल मारकर कहा-कहां था तू- इतनी देर से पुकार रहा हूं, सुनता नहीं किसके लिए बिछावन लगा रहा है, ससुर बहू जा रही है। जा दौड़कर बाजार से मिठाई ला। चौक वाली दुकान से लाना।
सुखदा आग्रह के साथ बोली-मिठाई की मुझे बिलकुल जरूरत नहीं है और न कुछ खाने की ही इच्छा है। कुछ कपड़े लिए जाती हूं, वही मेरे लिए काफी हैं।
बाहर से आवाज आई-सेठजी, देवीजी को जल्दी भेजिए, देर हो रही है।
समरकान्त बाहर आए और अपराधी की भांति खड़े गए।
डिप्टी दुहरे बदन का, रोबदार, पर हंसमुख आदमी था, जो और किसी विभाग में अच्छी जगह न पाने के कारण पुलिस में चला आया था। अनावश्यक अशिष्टता से उसे घृणा थी और यथासाध्‍य रिश्वत न लेता था। पूछा-कहिए क्या राय हुई-
समरकान्त ने हाथ बंधकर कहा-कुछ नहीं सुनती हुजूर, समझाकर हार गया। और मैं उसे क्या समझाऊं- मुझे वह समझती ही क्या है- अब तो आप लोगों की दया का भरोसा है। मुझसे जो खिदमत कहिए, उसके लिए हाजिर हूं। जेलर साहब से तो आपका रब्त-जब्त होगा ही, उन्हें भी समझा दीजिएगा। कोई तकलीफ न होने पावे। मैं किसी तरह भी बाहर नहीं हूं। नाजुक मिजाज औरत है, हुजूर ।

 

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