मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

premchand karmboomi premchand novel best story

कर्मभूमि

चौथा भाग - एक

पेज- 192

ठंड ज्यादा थी। सलीम को मजबूर होकर अमरकान्त को अपने कमरे में लाना पड़ा।
अमर ने देखा, कमरे में गद्वेदार कोच हैं, पीतल के गमले हैं, जमीन पर कालीन है, मधय में संगमरमर की गोल मेज है।
अमर ने दरवाजे पर जूते उतार दिए और बोला-किवाड़ बंद कर दूं, नहीं कोई देख ले, तो तुम्हें शर्मिंदाहोना पड़े। तुम साहब ठहरे।
सलीम पते की बात सुनकर झेंप गया। बोला-कुछ-न-कुछ खयाल तो होता ही है भई, हालांकि मैं व्‍यसन का गुलाम नहीं हूं। मैं भी सादी जिंदगी बसर करना चाहता था लेकिन अब्बाजान की फरमाइश कैसे टालता- प्रिंसिपल तक कहते थे, तुम पास नहीं हो सकते लेकिन रिजल्ट निकला तो सब दंग रह गए। तुम्हारे ही खयाल से मैंने यह जिला पसंद किया। कल तुम्हें कलक्टर से मिलाऊंगा। अभी मि. गजनवी से तो तुम्हारी मुलाकात न होगी। बड़ा शौकीन आदमी है मगर दिल का साफ। पहली ही मुलाकात में उससे मेरी बेतकल्लुफी हो गई। चालीस के करीब होंगे, मगर कंपेबाजी नहीं छोड़ी।
अमर के विचार में अफसरों को सच्चरित्र होना चाहिए था। सलीम सच्चरित्रता का कायल न था। दोनों मित्रों में बहस हो गई।
अमर बोला-सच्चरित्र होने के लिए खुश्क होना जरूरी नहीं।
मैंने तो मुल्लाओं को हमेशा खुश्क ही देखा। अफसरों के लिए महज कानून की पाबंदी काफी नहीं। मेरे खयाल में तो थोड़ी-सी कमजोरी इंसान का जेवर है। मैं जिंदगी में तुमसे ज्यादा कामयाब रहा। मुझे दावा है कि मुझसे कोई नाराज नहीं है। तुम अपनी बीबी तक को खुश न रख सके। मैं इस मुल्लापन को दूर से सलाम करता हूं। तुम किसी जिले के अफसर बना दिए जाओ, तो एक दिन न रह सको। किसी को खुश न रख सकोगे।
अमर ने बहस को तूल देना उचित न समझा क्योंकि बहस में वह बहुत गर्म हो जाया करता था।
भोजन का समय आ गया था। सलीम ने एक शाल निकालकर अमर को ओढ़ा दिया। एक रेशमी स्लीपर उसे पहनने को दिया। फिर दोनों ने भोजन किया। एक मुद्दत के बाद अमर को ऐसा स्वादिष्ट भोजन मिला। मांस तो उसने न खाया लेकिन और सब चीजें मजे से खाईं।
सलीम ने पूछा-जो चीज खाने की थी, वह तो तुमने निकालकर रख दी।
अमर ने अपराधी भाव से कहा-मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन भीतर से इच्छा नहीं होती। और कहो, वहां की क्या खबरें हैं- कहीं शादी-वादी ठीक हुई- इतनी कसर बाकी है, उसे भी पूरी कर लो।
सलीम ने चुटकी ली-मेरी शादी की फिक्र छोड़ो, पहले यह बताओ कि सकीना से तुम्हारी शादी कब हो रही है- वह बेचारी तुम्हारे इंतजार में बैठी हुई है।

 

पिछला पृष्ठ कर्मभूमि अगला पृष्ठ
प्रेमचंद साहित्य का मुख्यपृष्ट हिन्दी साहित्य का मुख्यपृष्ट

 

 

 

top