मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

चौथा भाग – दो

पेज- 196

गूदड़ ने हार मानकर कहा-तो भैया, इतना बूता तो अब मुझमें नहीं रहा कि दिन-भर काम करूं और रात-भर दौड़ लगाऊं। काम न करूं, तो भोजन कहां से आए-
अमरकान्त ने उसे हिम्मत हारते देखकर सहास मुख से कहा-कितना बड़ा पेट तुम्हारा है दादा, कि सारे दिन काम करना पड़ता है। अगर इतना बड़ा पेट है, तो उसे छोटा करना पड़ेगा।
काशी और पयाग ने देखा कि इस वक्त सबके ऊपर फटकार पड़ रही है तो वहां से खिसक गए।
पाठशाला का समय हो गया था। अमरकान्त अपनी कोठरी में किताब लेने गया, तो देखा मुन्नी दूध लिए खड़ी है। बोला-मैंने तो कह दिया था, मैं दूध न पिऊंगा, फिर क्यों लाईं-
आज कई दिनों से मुन्नी अमर के व्यवहार में एक प्रकार की शुष्कता का अनुभव कर रही थी। उसे देखकर अब मुख पर उल्लास की झलक नहीं आती। उससे अब बिना विशेष प्रयोजन के बोलता भी कम है। उसे ऐसा जान पड़ता है कि यह मुझसे भागता है। इसका कारण वह कुछ नहीं समझ सकती। यह कांटा उसके मन में कई दिन से खटक रहा है। आज वह इस कांटे को निकाल डालेगी।
उसने अविचलित भाव से कहा-क्यों नहीं पिओगे, सुनूं-
अमर पुस्तकों का एक बंडल उठाता हुआ बोला-अपनी इच्छा है। नहीं पीता-तुम्हें मैं कष्ट नहीं देना चाहता।
मुन्नी ने तिरछी आंखों से देखा-यह तुम्हें कब से मालूम हुआ है कि तुम्हारे लिए दूध लाने में मुझे बहुत कष्ट होता है- और अगर किसी को कष्ट उठाने ही में सुख मिलता हो तो-
अमर ने हारकर कहा-अच्छा भाई, झगड़ा न करो, लाओ पी लूं।
एक ही सांस में सारा दूध कड़वी दवा की तरह पीकर अमर चलने लगा, तो मुन्नी ने द्वार छोड़कर कहा-बिना अपराध के तो किसी को सजा नहीं दी जाती।
अमर द्वार पर ठिठककर बोला-तुम तो जाने क्या बक रही हो- मुझे देर हो रही है।
मुन्नी ने विरक्त भाव धारण किया-तो मैं तुम्हें रोक तो नहीं रही हूं, जाते क्यों नहीं-
अमर कोठरी से बाहर पांव न निकाल सका।
मुन्नी ने फिर कहा-क्या मैं इतना भी नहीं जानती कि मेरा तुम्हारे ऊपर कोई अधिकार नहीं है- तुम आज चाहो तो कह सकते हो खबरदार, मेरे पास मत आना। और मुंह से चाहे न कहते हो पर व्यवहार से रोज ही कह रहे हो। आज कितने दिनों से देख रही हूं लेकिन बेहयाई करके आती हूं, बोलती हूं, खुशामद करती हूं। अगर इस तरह आंखें फेरनी थीं, तो पहले ही से उस तरह क्यों न रहे लेकिन मैं क्या बकने लगी- तुम्हें देर हो रही है, जाओ।

अमरकान्त ने जैसे रस्सी तुड़ाने का जोर लगाकर कहा-तुम्हारी कोई बात मेरी समझ नहीं आ रही है मुन्नी मैं तो जैसे पहले रहता था, वैसे ही अब भी रहता हूं। हां, इधर काम अधिक होने से ज्यादा बातचीत का अवसर नहीं मिलता।
मुन्नी ने आंखें नीची करके गूढ़ भाव से कहा-तुम्हारे मन की बात मैं समझ रही हूं, लेकिन वह बात नहीं है। तुम्हें भ्रम हो रहा है।
अमरकान्त ने आश्चर्य से कहा-तुम तो पहेलियों में बातें करने लगीं।
मुन्नी ने उसी भाव से जवाब दिया-आदमी का मन फिर जाता है, तो सीधी बातें भी पहेली-सी लगती हैं।
फिर वह दूध का खाली कटोरा उठाकर जल्दी से चली गई।
अमरकान्त का हृदय मसोसने लगा। मुन्नी जैसे सम्मोहन-शक्ति से उसे अपनी ओर खींचने लगी। 'तुम्हारे मन की बात मैं समझ रही हूं, लेकिन वह बात नहीं है। तुम्हें भ्रम हो रहा है ।' यह वाक्य किसी गहरे खड्ड की भांति उसके हृदय को भयभीत कर रहा था। उसमें उतरते दिल कांपता था, रास्ता उसी खड्ड में से जाता था।
वह न जाने कितनी देर अचेत-सा खड़ा रहा। सहसा आत्मानन्द ने पुकारा-क्या आज शाला बंद रहेगी-

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