मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

चौथा भाग – तीन

पेज- 198

पहले भोला चौधरी खड़े हुए। वह पहले किसी अफसर के कोचवान थे। अब नए साल से फिर खेती करने लगे थे। लंबी नाक, काला रंग, बड़ी-बड़ी मूंछें और बड़ी-सी पगड़ी। मुंह पगड़ी में छिप गया था। बोले-पंचो, हमारे ऊपर जो लगान बांधा हुआ है वह तेजी के समय का है। इस मंदी में वह लगान देना हमारे काबू से बाहर है। अबकी अगर बैल-बछिया बेचकर दे भी दें तो आगे क्या करेंगे- बस हमें इसी बात का तसफिया करना है। मेरी गुजारिस तो यही है कि हम सब मिलकर महन्त महाराज के पास चलें और उनसे अरज-माईज करें। अगर वह न सुनें तो हाकिम जिला के पास चलना चाहिए। मैं औरों की नहीं कहता। मैं गंगा माता की कसम खाके कहता हूं कि मेरे घर में छटांक भर भी अन्न नहीं है, और जब मेरा यह हाल है, तो और सभी का भी यही हाल होगा। उधर महन्तजी के यहां वही बहार है। अभी परसों एक हजार साधुओं को आम की पंगत दी गई। बनारस और लखनऊ से कई डिब्बे आमों के आए हैं। आज सुनते हैं फिर मलाई की पंगत है। हम भूखों मरते हैं, वहां मलाई उड़ती है। उस पर हमारा रक्त चूसा जा रहा है। बस, यही मुझे पंचों से कहना है।
गूदड़ ने धांसी हुई आंखें फेरकर कहा-महन्तजी हमारे मालिक हैं, अन्नदाता हैं, महात्मा हैं। हमारा दु:ख सुनकर जरूर-से-जरूर उन्हें हमारे ऊपर दया आएगी इसलिए हमें भोला चौरी की सलाह मंजूर करनी चाहिए। अमर भैया हमारी ओर से बातचीत करेंगे। हम और कुछ नहीं चाहते। बस, हमें और हमारे बाल-बच्चों को आधा-आधा सेर रोजाना के हिसाब से दिया जाए। उपज जो कुछ हो वह सब महन्तजी ले जाएं। हम घी-दूध नहीं मांगते, दूध-मलाई नहीं मागंते। खाली आध सेर मोटा अनाज मांगते हैं। इतना भी न मिलेगा, तो हम खेती न करेंगे। मजूरी और बीज किसके घर से लाएंगे। हम खेती छोड़ देंगे, इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है।
सलोनी ने हाथ चमकाकर कहा-खेत क्यों छोडें- बाप-दादों की निसानी है। उसे नहीं छोड़ सकते। खेत पर परान दे दूंगी। एक था, तब दो हुए, तब चार हुए, अब क्या धरती सोना उगलेगी।
अलगू कोरी बिज्जू-सी आंखें निकालकर बोला-भैया, मैं तो बेलाग कहता हूं, महन्त के पास चलने से कुछ न होगा। राजा ठाकुर हैं। कहीं क्रोध आ गया, तो पिटवाने लगेंगे। हाकिम के पास चलना चाहिए। गोरों में फिर भी दया है।
आत्मानन्द ने सभी का विरोध किया-मैं कहता हूं, किसी के पास जाने से कुछ नहीं होगा। तुम्हारी थाली की रोटी तुमसे कहे कि मुझे न खाओ, तो तुम मानोगे-
चारों तरफ से आवाजें आईं-कभी नहीं मान सकते।
'तो तुम जिनकी थाली की रोटियां हो वह कैसे मान सकते हैं।'
बहुत-सी आवाजों ने समर्थन किया-कभी नहीं मान सकते हैं।
'महन्तजी को उत्सव मनाने को रुपये चाहिए। हाकिमों को बड़ी-बड़ी तलब चाहिए। उनकी तलब में कमी नहीं हो सकती। वे अपनी शान नहीं छोड़ सकते। तुम मरो या जियो उनकी बला से। वह तुम्हें क्यों छोड़ने लगे?'
बहुत-सी आवाजों ने हामी भरी-कभी नहीं छोड़ सकते।
अमरकान्त स्वामीजी के पीछे बैठा हुआ था। स्वामीजी का यह रूख देखकर घबराया लेकिन सभापति को कैसे रोके- यह तो वह जानता था, यह गर्म मिजाज का आदमी है लेकिन इतनी जल्दी इतना गर्म हो जाएगा, इसकी उसे आशा न थी। आखिर यह महाशय चाहते क्या हैं-

 

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