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मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि
कर्मभूमि
चौथा भाग – पांच
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दोनों आदमियों ने कुछ रात रहे ही उठकर स्नान किया और दिन निकलने के पहले डयोढ़ी पर जा पहुंचे। मालूम हुआ, महन्तजी पूजा पर हैं।
एक घंटा बाद फिर गए, तो सूचना मिली, महन्तजी कलेऊ पर हैं।
जब वह तीसरी बार नौ बजे गया, तो मालूम हुआ, महन्तजी घोड़ों का मुआइना कर रहे हैं। अमर ने झुंझलाकर द्वारपाल से कहा-तो आखिर हमें कब दर्शन होंगे-
द्वारपाल ने पूछा-तुम कौन हो-
'मैं उनके इलाके के विषय में कुछ कहने आया हूं।'
'तो कारकुन के पास जाओ। इलाके का काम वही देखते हैं।'
अमर पूछता हुआ कारकुन के दफ्तर में पहुंचा, तो बीसों मुनीम लंबी-लंबी बही खोले लिख रहे थे। कारकुन महोदय मसनद लगाए हुक्का पी रहे थे।
अमर ने सलाम किया।
कारकुन साहब ने दाढ़ी पर हाथ फेरकर पूछा-अर्जी कहां है-
अमर ने बगलें झांककर कहा-अर्जी तो मैं नहीं लाया।
'तो फिर यहां क्या करने आए?'
'मैं तो श्रीमान् महन्तजी से कुछ अर्ज करने आया था।'
'अर्जी लिखकर लाओ।'
'मैं तो महन्तजी से मिलना चाहता हूं।'
'नजराना लाए हो?'
'मैं गरीब आदमी हूं, नजराना कहां से लाऊं?'
'इसलिए कहता हूं, अर्जी लिखकर लाओ। उस पर विचार होगा। जो कुछ हुक्म होगा, सुना दिया जाएगा।'
'तो कब हुक्म सुनाया जाएगा?'
'जब महन्तजी की इच्छा हो।'
'महन्तजी को कितना नजराना चाहिए?'
'जैसी श्रध्दा हो। कम-से-कम एक अशर्फी।'
'कोई तारीख बता दीजिए, तो मैं हुक्म सुनने आऊं। यहां रोज कौन दौड़ेगा?'
'तुम दौड़ोगे और कौन दौड़ेगा- तारीख नहीं बताई जा सकती।'
अमर ने बस्ती में जाकर विस्तार के साथ अर्जी लिखी और उसे कारकुन की सेवा में पेश कर दिया। फिर दोनों घर चले गए।
इनके आने की खबर पाते ही गांव के सैकड़ों आदमी जमा हो गए। अमर बड़े संकट में पड़ा। अगर उनसे सारा वृत्तांत कहता है, तो लोग उसी को उल्लू बनाएंगे-इसलिए बात बनानी पड़ी-अर्जी पेश कर आया हूं। उस पर विचार हो रहा है।
काशी ने अविश्वास के भाव से कहा-वहां महीनों में विचार होगा, तब तक यहां कारिंदे हमें नोच डालेंगे।
अमर ने खिसियाकर कहा-महीनों में क्यों विचार होगा- दो-चार दिन बहुत हैं।
पयाग बोला-यह सब टालने की बातें हैं। खुशी से कौन अपने रुपये छोड़ सकता है।
अमर रोज सबेरे जाता और घड़ी रात गए लौट आता। पर अर्जी पर विचार न होता था। कारकुन, उनके मुहर्रिरों, यहां तक की चपरासियों की मिन्नत-समाजत करता पर कोई न सुनता था। रात को वह निराश होकर लौटता, तो गांव के लोग यहां उसका परिहास करते।
पयाग कहता-हमने तो सुना था कि रुपये में आठ आने की छूट हो गई।
काशी कहता-तुम झूठे हो। मैंने तो सुना था, महन्तजी ने इस साल पूरी लगान माफ कर दी।
उधर आत्मानन्द हलके में बराबर जनता को भड़का रहे थे। रोज बड़ी-बड़ी किसान-सभाओं की खबरें आती थीं। जगह-जगह किसान-सभाएं बन रही थीं। अमर की पाठशाला भी बंद पड़ी थी। उसे फुरसत ही न मिलती थी, पढ़ाता कौन- रात को केवल मुन्नी अपनी कोमल सहानुभूति से उसके आंसू पोंछती थी।
आखिर सातवें दिन उसकी अर्जी पर हुक्म हुआ कि सामने पेश किया जाय। अमर महन्त के सामने लाया गया। दोपहर का समय था। महन्तजी खसखाने में एक तख्त पर मसनद लगाए लेटे हुए थे। चारों तरफ खस की टट्टियां थीं, जिन पर गुलाब का छिड़काव हो रहा था। बिजली के पंखे चल रहे थे। अंदर इस जेठ के महीने में इतनी ठंडक थी कि अमर को सर्दी लगने लगी।
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