मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

चौथा भाग – पांच

पेज- 209

सलीम ने सिर हिलाया-उन्हें फुरसत कहां- मैंने बुलाया था, नहीं आए।
गजनवी मुस्कराए-तुमने निज के तोर पर बुलाया होगा। किसी इंस्टिटयूशन की तरफ से बुलाओ और कुछ चंदा करा देने का वादा कर लो, फिर देखो, चारों-हाथ पांव से दौड़े आते हैं या नहीं। इन कौमी खादिमों की जान चंदा है, ईमान चंदा है और शायद खुदा भी चंदा है। जिसे देखो, चंदे की हाय-हाय। मैंने कई बार इस खादिमों को चरका दिया, उस वक्त इन खादिमों की सूरतें देखने ही से ताल्लुक रखती हैं। गालियां देते हैं, पैंतरे बदलते हैं, जबान से तोप के गोले छोड़ते हैं, और आप उनके बौखलपन का मजा उठा रहे हैं। मैंने तो एक बार एक लीडर साहब को पागलखाने में बंद कर दिया था। कहते हैं अपने को कौम का खादिम और लीडर समझते हैं।
सवेरे मि. गजनवी ने अमर को अपनी मोटर पर गांव में पहुंचा दिया। अमर के गर्व और आनंद का पारावार न था। अफसरों की सोहबत ने कुछ अफसरी की शान पैदा कर दी थी-हाकिम परगना तुम्हारी हालत जांच करने आ रहे हैं। खबरदार, कोई उनके सामने झूठा बयान न दे। जो कुछ वह पूछें, उसका ठीक-ठीक जवाब दो। न अपनी दशा को छिपाओ, न बढ़ाकर बताओ। तहकीकात सच्ची होनी चाहिए। मि. सलीम बड़े नेक और गरीब-दोस्त आदमी हैं। तहकीकात में देर जरूर लगेगी, लेकिन राज्य-व्यवस्था में देर लगती ही है। इतना बड़ा इलाका है, महीनों घूमने में लग जाएंगे। तब तक तुम लोग खरीफ का काम शुरू कर दो। रुपये-आठ आने छूट का मैं जिम्मा लेता हूं। सब्र का फल मीठा होता है, समझ लो।
स्वामी आत्मानन्द को भी अब विश्वास आ गया। उन्होंने देखा, अकेला ही सारा यश लिए जाता है और मेरे पल्ले अपयश के सिवा और कुछ नहीं पड़ता, तो उन्होंने पहलू बदला। एक जलसे में दोनों एक ही मंच से बोले। स्वामीजी झुके, अमर ने कुछ हाथ बढ़ाया। फिर दोनों में सहयोग हो गया।
इधर असाढ़ की वर्षा शुरू हुई उधर सलीम तहकीकात करने आ पहुंचा। दो-चार गांवों में असामियों के बयान लिखे भी लेकिन एक ही सप्ताह में ऊब गया। पहाड़ी डाक-बंगले में भूत की तरह अकेले पड़े रहना उसके लिए कठिन तपस्या थी। एक दिन बीमारी का बहाना करके भाग खड़ा हुआ और एक महीने तक टाल-मटोल करता रहा। आखिर जब ऊपर से डांट पड़ी और गजनवी ने सख्त ताकीद की तो फिर चला। उस वक्त सावन की झड़ी लग गई थी, नदी, नाले-भर गए थे, और कुछ ठंडक आ गई थी। पहाड़ियों पर हरियाली छा गई थी। मोर बोलने लगे थे। प्राकृतिक शोभा ने देहातों को चमका दिया था।
कई दिन के बाद आज बादल खुले थे। महन्तजी ने सरकारी फैसले के आने तक रुपये में चार आने की छूट की घोषणा दी थी और कारिंदे बकाया वसूल करने की फिर चेष्टा करने लगे थे। दो-चार असामियों के साथ उन्होंने सख्ती भी की थी। इस नई समस्या पर विचार करने के लिए आज गंगा-तट पर एक विराट् सभा हो रही थी। भोला चौधरी सभापति बनाए गए और स्वामी आत्मानन्द का भाषण हो रहा था-सज्जनो, तुम लोगों में ऐसे बहुत कम हैं, जिन्होंने आधा लगान न दे दिया हो। अभी तक तो आधो की चिंता थी। अब केवल आधो-के-आधो की ्रूचता है। तुम लोग खुशी से दो-दो आने और दे दो, सरकार महन्तजी की मलागुजारी में कुछ-न-कुछ छूट अवश्य करेगी। अब की छ: आने छूट पर संतुष्ट हो जाना चाहिए। आगे की फसल में अगर अनाज का भाव यही रहा, तो हमें आशा है कि आठ आने की छूट मिल जाएगी। यह मेरा प्रस्ताव है, आप लोग इस पर विचार करें। मेरे मित्र अमरकान्त की भी यही राय है। अगर आप लोग कोई और प्रस्ताव करना चाहते हैं तो हम उस पर विचार करने को भी तैयार हैं।
इसी वक्त डाकिये ने सभा में आकर अमरकान्त के हाथ में एक लिफाफा रख दिया। पते की लिखावट ने बता दिया कि नैना का पत्र है। पढ़ते ही जैसे उस पर नशा छा गया। मुख पर ऐसा तेज आ गया, जैसे अग्नि में आहुति पड़ गई हो। गर्व भरी आंखों से इधर-उधर देखा। मन के भाव जैसे छलांगें मारने लगे। सुखदा की गिरफ्तारी और जेल-यात्रा का वृत्तांत था। आह वह जेल गई और वह यहां पड़ा हुआ है उसे बाहर रहने का क्या अधिकार है वह कोमलांगी जेल में है, जो कड़ी दृष्टि भी न सह सकती थी, जिसे रेशमी वस्त्र भी चुभते थे, मखमली गद्वे भी गड़ते थे, वह आज जेल की यातना सह रही है। वह आदर्श नारी, वह देश की लाज रखने वाली, वह कुल लक्ष्मी, आज जेल में है। अमर के हृदय का सारा रक्त सुखदा के चरणों पर गिरकर बह जाने के लिए मचल उठा। सुखदा सुखदा चारों ओर वही मूर्ति थी। संध्‍या की लालिमा से रंजित गंगा की लहरों पर बैठी हुई कौन चली जा रही है- सुखदा ऊपर असीम आकाश में केसरिया साड़ी पहने कौन उठी जा रही है- सुखदा सामने की श्याम पर्वतमाला में गोधुलि का हार गले में डाले कौन खड़ी है- सुखदा अमर विक्षिप्तों की भांति कई कदम आगे दौड़ा, मानो उसकी पद-रज मस्तक पर लगा लेना चाहता हो।

सभा में कौन क्या बोला, इसकी उसे खबर नहीं। वह खुद क्या बोला, इसकी भी उसे खबर नहीं। जब लोग अपने-अपने गांवों को लौटे तो चन्द्रमा का प्रकाश फैल गया था। अमरकान्त का अंत:करण कृतज्ञता से परिपूर्ण था। जैसे अपने ऊपर किसी की रक्षा का साया उसी ज्योत्स्ना की भांति फैला हुआ जान पड़ा। उसे प्रतीत हुआ, जैसे उसके जीवन में कोई विधन है, कोई आदेश है, कोई आशीर्वाद है, कोई सत्य है, और वह पग-पग पर उसे संभालता है, बचाता है। एक महान् इच्छा, एक महान् चेतना के संसर्ग का आज उसे पहली बार अनुभव हुआ।
सहसा मुन्नी ने पुकारा-लाला, आज तो तुमने आग ही लगा दी।
अमर ने चौंककर कहा-मैंने ।
तब उसे अपने भाषण का एक-एक शब्द याद आ गया। उसने मुन्नी का हाथ पकड़ कर कहा-हां मुन्नी, अब हमें वही करना पड़ेगा, जो मैंने कहा। जब तक हम लगान देना बंद न करेंगे। सरकार यों ही टालती रहेगी।
मुन्नी संशक होकर बोली-आग में कूद रहे हो, और क्या-
अमर ने ठट्ठा मारकर कहा-आग में कूदने से स्वर्ग मिलेगा। दूसरा मार्ग नहीं है।
मुन्नी चकित होकर उसका मुंह देखने लगी। इस कथन में हंसने का क्याप्रयोजन वह समझ न सकी।

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