मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

चौथा भाग – आठ

पेज- 216

काशी ने कहा-भैया, हम सब तुम्हारे साथ चलने को तैयार हैं।
अमर ने मुस्कराकर उत्तर दिया-नेवता तो मुझे मिला है, तुम लोग कैसे जाओगे-
किसी के पास इसका जवाब न था। भैया बात ही ऐसी करते हैं कि किसी से उसका जवाब नहीं बन पड़ता।
मुन्नी सबसे पीछे खड़ी थी, उसकी आंखें सजल थीं। इस दशा में अमर के सामने कैसे जाए- हृदय में जिस दीपक को जलाए, वह अपने अंधेरे जीवन में प्रकाश का स्वप्न देख रही थी, वह दीपक कोई उसके हृदय से निकाले लिए जाता है। वह सूना अंधकार क्या फिर वह सह सकेगी ।
सहसा उसने उत्तोजित होकर कहा-इतने जने खड़े ताकते क्या हो उतार लो मोटर से जन-समूह में एक हलचल मची। एक ने दूसरे की ओर कैदियों की तरह देखा कोई बोला नहीं।
मुन्नी ने फिर ललकारा-खड़े ताकते क्या हो, तुम लोगों में कुछ दया है या नहीं जब पुलिस और फौज इलाके को खून से रंग दे, तभी-।
अमर ने मोटर से निकलकर कहा-मुन्नी, तुम बुद्धिमती होकर ऐसी बातें कर रही हो मेरे मुंह पर कालिख मत लगाओ।
मुन्नी उन्‍मुक्‍तों की भांति बोली-मैं बुद्धिमान् नहीं, मैं तो मूरख हूं, गंवारिन हूं। आदमी एक-एक पत्ती के लिए सिर कटा देता है, एक-एक बात पर जान देता है। क्या हम लोग खड़े ताकते रहें और तुम्हें कोई पकड़ ले जाए- तुमने कोई चोरी की है डाका मारा है-
कई आदमी उत्तोजित होकर मोटर की ओर बढ़े पर अमरकान्त की डांट सुनकर ठिठक गए-क्या करते हो पीछे हट जाओ। अगर मेरे इतने दिनों की सेवा और शिक्षा का यही फल है, तो मैं कहूंगा कि मेरा सारा परिश्रम धूल में मिल गया।

 

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