तेगमुहम्मद पढ़ा-लिखा आदमी था। वह वाद-विवाद करने पर तैयार हो गया। सलीम ने उसकी हंसी उड़ाने की चेष्टा की। पंथों को वह संसार का कलंक समझता था, जिसने मनुष्य-जाति को विरोधी दलों में विभक्त करके एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है। तेगमुहम्मद रोजा-नमाज का पाबंद, दीनदार मुसलमान था। मजहब की तौहीन क्योंकर बर्दाश्त करता- उधर तो अहिराने में पुलिस और अहीरों में लाठियां चल रही थीं, इधर इन दोनों में हाथापाई की नौबत आ गई। कसाई पहलवान था। सलीम भी ठोकर चलाने और घूसेबाजी में मंजा हुआ, फुर्तीला, चुस्त। पहलवान साहब उसे अपनी पकड़ में लाकर दबोच बैठना चाहते थे। वह ठोकर-पर-ठोकर जमा रहा था। ताबड़-तोड़ ठोकरें पड़ीं तो पहलवान साहब गिर पड़े और लगे मात्भाषा में अपने मनोविकारों को प्रकट करने। उसके दोनों साथियों ने पहले दूर ही से तमाशा देखना उचित समझा था लेकिन जब तेगमुहम्मद गिर पड़ा, तो दोनों कमर कसकर पिल पड़े। यह दोनों अभी जवान पट्ठे थे, तेजी और चुस्ती में सलीम के बराबर थें। सलीम पीछे हटता जाता था और यह दोनों उसे ठेलते जाते थे। उसी वक्त सलोनी लाठी टेकती हुई अपनी गाय खोजने आ रही थी। पुलिस उसे उसके द्वार से खोल लाई थी। यहां यह संग्राम छिड़ा देखकर उसने अंचल सिर से उतार कर कमर में बांधा और लाठी संभालकर पीछे से दोनों कसाइयों को पीटने लगी। उनमें से एक ने पीछे फिरकर बुढ़िया को इतने जोर से धक्का दिया कि वह तीन-चार हाथ पर जा गिरी। इतनी देर में सलीम ने घात पाकर सामने के जवान को ऐसा घूंसा दिया कि उसकी नाक से खून जारी हो गया और वह सिर पकड़कर बैठ गया। अब केवल एक आदमी और रह गया। उसने अपने दो योद्वाओं की यह गति देखी तो पुलिस वालों से फरियाद करने भागा। तेगमुहम्मद की दोनों घुटनियां बेकार हो गई थीं। उठ न सकता था। मैदान खाली देखकर सलीम ने लपककर मवेशियों की रस्सियां खोल दीं और तालियां बजा-बजाकर उन्हें भगा दिया। बेचारे जानवर सहमे खड़े थे। आने वाली विपत्ति का उन्हें कुछ आभास हो रहा था। रस्सी खुली तो सब पूंछ उठा-उठाकर भागे और हार की तरफ निकल गए।
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