मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

पांचवा भाग – दस

पेज- 261

लेकिन एक ही क्षण में वह नम्र होकर बोला-संभव है, हमसे गलती हुई हो, लेकिन उस वक्त हमें यही सूझ पड़ा।
सेठजी ने शांतिपूर्वक कहा-हां, गलती हुई और बहुत बड़ी गलती हुई। सैकड़ों घर बरबाद हो जाने के सिवा और कोई नतीजा न निकला। इस विषय पर गवर्नर साहब से मेरी बातचीत हुई है और वह भी यही कहते हैं कि ऐसे जटिल मुआमले में विचार से काम नहीं लिया गया। तुम तो जानते हो, उनसे मेरी कितनी बेतकल्लुफी है। नैना की मृत्यु पर उन्होंने मातमपुरसी का तार दिया था। तुम्हें शायद मालूम न हो, गवर्नर साहब ने खुद उस इलाके का दौरा किया और वहां के निवासियों से मिले। पहले तो कोई उनके पास आता ही न था। साहब बहुत हंस रहे थे कि ऐसी सूखी अकड़ कहीं नहीं देखी। देह पर साबित कपड़े नहीं लेकिन मिजाज यह है कि हमें किसी से कुछ नहीं कहना है। बड़ी मुश्किल से थोड़े-से आदमी जमा हुए। जज साहब ने उन्हें तसल्ली दी और कहा-तुम लोग डरो मत, हम तुम्हारे साथ अन्याय नहीं करना चाहते, तब बेचारे रोने लगे। साहब इस झगड़े को जल्द तय कर देना चाहते हैं। और इसलिए उनकी आज्ञा है कि सारे कैदी छोड़ दिए जाएं और एक कमेटी करके निश्चय कर लिया जाय कि हमें क्या करना है- उस कमेटी में तुम और तुम्हारे दोस्त मियां सलीम तो होंगे ही, तीन आदमियों को चुनने का तुम्हें और अधिकार होगा। सरकार की ओर से केवल दो आदमी होंगे। बस, मैं यही सूचना देने आया हूं। मुझे आशा है, तुम्हें इसमें कोई आपत्ति न होगी।
सकीना और मुन्नी में कनफुसकियां होने लगीं। सलीम के चेहरे पर रौनक आ गई, पर अमर उसी तरह शांत, विचारों में मग्न खड़ा रहा।
सलीम ने उत्सुकता से पूछा-हमें अख्तियार होगा जिसे चाहें चुनें-
'पूरा।'
'उस कमेटी का फैसला नातिक होगा?'
सेठजी ने हिचकिचाकर कहा-मेरा तो ऐसा खयाल है।
'हमें आपके खयाल की जरूरत नहीं। हमें इसकी तहरीर मिलनी चाहिए।'
'और तहरीर न मिले।'
'तो हमें मुआइदा मंजूर नहीं।'
'नतीजा यह होगा, कि यहीं पड़े रहोगे और रिआया तबाह होती रहेगी।'
'जो कुछ भी हो।'
'तुम्हें तो कोई खास तकलीफ नहीं है लेकिन गरीबों पर क्या बीत रही है, वह सोचो।'
'खूब सोच लिया है।'
'नहीं सोचा।'
'बिलकुल नहीं सोचा।'
'खूब अच्छी तरह सोच लिया है।'
'सोचते तो ऐसा न कहते।'
'सोचा है इसीलिए ऐसा कह रहा हूं।'
अमर ने कठोर स्वर में कहा-क्या कह रहे हो सलीम क्यों हुज्जत कर रहे हो- इससे फायदा-
सलीम ने तेज होकर कहा-मैं हुज्जत कर रहा हूं- वाह री आपकी समझ सेठजी मालदार हैं, हुक्कमरस हैं, इसलिए वह हुज्जत नहीं करते। मैं गरीब हूं, कैदी हूं इसलिए हुज्जत करता हूं-
'सेठजी बुजुर्ग हैं।'
'यह आज ही सुना कि हुज्जत करना बुजुर्गी की निशानी है।'
अमर अपनी हंसी को रोक न सका-यह शायरी नहीं है भाईजान, कि जो मुंह में आया बक गए। ऐसे मुआमले हैं, जिन पर लाखों आदमियों की जिंदगी बनती-बिगड़ती है। पूज्य सेठजी ने इस समस्या को सुलझाने में हमारी मदद की, जैसा उनका धर्म था और इसके लिए हमें उनका मशकूर होना चाहिए । हम इसके सिवा और क्या चाहते हैं कि गरीब किसानों के साथ इंसाफ किया जाय, और जब उस उद्देश्य को करने के इरादे से एक ऐसी कमेटी बनाई जा रही है, जिससे यह आशा नहीं कि जा सकती कि वह किसान के साथ अन्याय करे, तो हमारा धर्म है कि उसका स्वागत करें।

 

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