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मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि
कर्मभूमि
पहला भाग- सोलह
पेज- 69
उसने स्थिर भाव से कहा-अगर आपकी यही इच्छा है तो यही सही।
लालाजी ने कुछ खिसियाकर पूछा-सास के बल पर कूद रहे होगे -
अमर ने तिरस्कार भरे स्वर में कहा-दादा, आप घाव पर नमक न छिड़कें। जिस पिता ने जन्म दिया, जब उसके घर में मेरे लिए स्थान नहीं है, तो क्या आप समझते हैं मैं सास और ससुर की रोटियां तोडूंगा- आपकी दया से इतना नीच नहीं हूं। मैं मजदूरी कर सकता हूं और पसीने की कमाई खा सकता हूं। मैं किसी प्राणी से दया की भिक्षा मांफना अपने आत्म-सम्मान के लिए घातक समझता हूं। ईश्वर ने चाहा तो मैं आपको दिखा दूंगा कि मैं मजदूरी करके भी जनता की सेवा कर सकता हूं।
समरकान्त ने समझा, अभी इसका नशा नहीं उतरा। महीना गृहस्थी के चरखे में पड़ेगा तो आंखें खुल जाएंगी। चुपचाप बाहर चले गए। और अमर उसी वक्त एक मकान की तलाश करने चला।
उसके चले जाने के बाद लालाजी फिर अंदर गए। उन्हें आशा थी कि सुखदा उनके घाव पर मरहम रखेगी पर सुखदा उन्हें अपने द्वार के सामने देखकर भी बाहर न निकली। कोई पिता इतना कठोर हो सकता है, इसकी वह कल्पना भी न कर सकती थी। आखिर यह लाखों की संपत्ति किस काम आएगी - अमर घर के काम-काज से अलग रहता है, यह सुखदा को खुद बुरा मालूम होता था। लालाजी इसके लिए पुत्र को ताड़ना देते हैं, यह भी उचित ही था लेकिन घर का और भोजन का खर्च मांफना यह तो नाता ही तोड़ना था। तो जब वह नाता तोड़ते हैं तो वह रोटियों के लिए उनकी खुशामद न करेगी। घर में आग लग जाए, उससे कोई मतलब नहीं। उसने अपने सारे गहने उतार डाले। आखिर यह गहने भी तो लालाजी ही ने दिए हैं। मां की दी हुई चीजें भी उतार फेंकी। मां ने भी जो कुछ दिया था, दहेज की पुरौती ही में तो दिया था। उसे भी लालाजी ने अपनी बही में टांक लिया होगा। वह इस घर से केवल एक साड़ी पहनकर जाएगी। भगवान् उसके मुन्ने को कुशल से रखें, उसे किसी की क्या परवाह यह अमूल्य रत्न तो कोई उससे छीन नहीं सकता।
अमर के प्रति इस समय उसके मन में सच्ची सहानुभूति उत्पन्न हुई। आखिर म्युनिसिपैलिटी के लिए खड़े होने में क्या बुराई थी- मान और प्रतिष्ठा किसे प्यारी नहींहोती - इसी मेंबरी के लिए लोग लाखों खर्च करते हैं। क्या वहां जितने मेंबर हैं, वह सब घर के निखट्टू ही हैं - कुछ नाम करने की, कुछ काम करने की लालसा प्राणी मात्र को होती है। अगर वह स्वार्थ साधन पर अपना समर्पण नहीं करते, तो कोई ऐसा काम नहीं करते, जिसका यह दंड दिया जाए। कोई दूसरा आदमी पुत्र के इस अनुराग पर अपने को धान्य मानता, अपने भाग्य को सराहता।
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