मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

दूसरा भाग - एक

पेज- 93

'चलो, मैं पहुंचा देती हूं। कहेगा क्या, क्या समझता है यहां धान्नासेठ बसते हैं- मैं तो कहती हूं, देख लेना, वह बाजरे की ही रोटियां खाएगा। गेहूं की छुएगा भी नहीं।'
दोनों पहुंचीं तो देखा अमरकान्त द्वार पर झाडू लगा रहा है। महीनों से झाडू न लगी थी। मालूम होता था, उलझे-बिखरे बालों पर कंघी कर दी गई है।
सलोनी थाली लेकर जल्दी से भीतर चली गई। मुन्नी ने कहा-अगर ऐसी मेहमानी करोगे, तो यहां से कभी न जाने पाओगे।
उसने अमर के पास जाकर उसके हाथ से झाडू छीन ली। अमर ने कूडे। को पैरों से एक जगह बटोर कर कहा-सगाई हो गई, तो द्वार कैसा अच्छा लगने लगा-
'कल चले जाओगे, तो यह बातें याद आएंगी। परदेसियों का क्या विश्वास- फिर इधर क्यों आओगे?'
मुन्नी के मुख पर उदासी छा गई।
'जब कभी इधर आना होगा, तो तुम्हारे दर्शन करने अवश्य आऊंगा। ऐसा सुंदर गांव मैंने नहीं देखा। नदी, पहाड़, जंगल, इसकी भी छटा निराली है। जी चाहता है यहीं रह जाऊं और कहीं जाने का नाम न लूं।'
मुन्नी ने उत्सुकता से कहा-तो यहीं रह क्यों नहीं जाते- मगर फिर कुछ सोचकर बोली-तुम्हारे घर में और लोग भी तो होंगे, वह तुम्हें यहां क्यों रहने देंगे-
'मेरे घर में ऐसा कोई नहीं है, जिसे मेरे मरने-जीने की चिंता हो। मैं संसार में अकेला हूं।'
मुन्नी आग्रह करके बोली-तो यहीं रह जाओ, कौन भाई हो तुम-
'यह तो मैं बिलकुल भूल गया, भाभी जो बुलाकर प्रेम से एक रोटी खिला दे वही मेरा भाई है।'
'तो कल मुझे आ लेने देना। ऐसा न हो, चुपके से भाग जाओ।'
अमरकान्त ने झोपडी में आकर देखा, तो बुढ़िया चूल्हा जला रही थी। गीली लकड़ी, आग न जलती थी। पोपले मुंह में ठ्ठंक भी न थी। अमर को देखकर बोली-तुम यहां धुएं में कहां आ गए, बेटा- जाकर बाहर बैठो, यह चटाई उठा ले जाओ।
अमर ने चूल्हे के पास जाकर कहा-तू हट जा, मैं आग जलाए देता हूं।
सलोनी ने स्नेहमय कठोरता से कहा-तू बाहर क्यों नहीं जाता- मरदों का इस तरह रसोई में घुसना अच्छा नहीं लगता।

 

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