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मुंशी प्रेमचंद - निर्मला
निर्मला
उन्नीस
पेज- 62
एक दिन डॉक्टर सिन्हा ने जियाराम को बुलाकर समझाना शुरु किया। जियाराम उनका अदब करता था। चुपचाप बैठा सुनता रहा। जब डॉक्टर साहब ने अन्त में पूछा, आखिर तुम चाहते क्या हो? तो वह बोला- साफ-साफ कह दूं? बूरा तो न मानिएगा?
सिन्हा- नहीं, जो कुछ तुम्हारे दिल में हो साफ-साफ कह दो।
जियाराम- तो सुनिए, जब से भैया मरे हैं, मुझे पिताजी की सूरत देखकर क्रोध आता है। मुझे ऐसा मालूम होता है कि इन्हीं ने भैया की हत्या की है और एक दिन मौका पाकर हम दोनों भाइयों को भी हत्या करेंगे। अगर उनकी यह इच्छा न होती तो ब्याह ही क्यों करते?
डॉक्टर साहब ने बड़ी मुश्किल से हंसी रोककर कहा- तुम्हारी हत्या करने के लिए उन्हें ब्याह करने की क्या जरुरत थी, यह बात मेरी समझ में नहीं आयी। बिना विवाह किये भी तो वह हत्या कर सकते थे।
जियाराम- कभी नहीं, उस वक्त तो उनका दिल ही कुछ और था, हम लोगों पर जान देते थे अब मुंह तके नहीं देखना चाहते। उनकी यही इच्छा है कि उन दोनों प्राणियों के सिवा घर में और कोई न रहे। अब जसे लड़के होंगे उनक रास्ते से हम लोगों का हटा देना चाहते है। यही उन दोनों आदमियों की दिली मंशा है। हमें तरह-तरह की तकलीफें देकर भगा देना चाहते हैं। इसीलिए आजकल मुकदमे नहीं लेते। हम दोनों भाई आज मर जायें, तो फिर देखिए कैसी बहार होती है।
डॉक्टर- अगर तुम्हें भागना ही होता, तो कोई इल्जाम लगाकर घर से निकल न देते?
जियाराम- इसके लिए पहले ही से तैयार बैठा हूं।
डॉक्टर- सुनूं, क्या तैयारी कही है?
जियाराम- जब मौका आयेगा, देख लीजिएगा।
यह कहकर जियराम चलता हुआ। डॉक्टर सिन्हा ने बहुत पुकारा, पर उसने फिर कर देखा भी नहीं।
कई दिन के बाद डॉक्टर साहब की जियाराम से फिर मुलाकात हो गयी। डॉक्टर साहब सिनेमा के प्रेमी थे और जियाराम की तो जान ही सिनेमा में बसती थी। डॉक्टर साहब ने सिनेमा पर आलोचना करके जियाराम को बातों में लगा लिया और अपने घर लाये। भोजन का समय आ गया था,, दोनों आदमी साथ ही भोजन करने बैठे। जियाराम को वहां भोजन बहुत स्वादिष्ट लगा, बोल- मेरे यहां तो जब से महाराज अलग हुआ खाने का मजा ही जाता रहा। बुआजी पक्का वैष्णवी भोजन बनाती हैं। जबरदस्ती खा लेता हूं, पर खाने की तरफ ताकने को जी नहीं चाहता।
डॉक्टर- मेरे यहां तो जब घर में खाना पकता है, तो इसे कहीं स्वादिष्ट होता है। तुम्हारी बुआजी प्याज-लहसुन न छूती होंगी?
जियाराम- हां साहब, उबालकर रख देती हैं। लालाली को इसकी परवाह ही नहीं कि कोई खाता है या नहीं। इसीलिए तो महाराज को अलग किया है। अगर रुपये नहीं है, तो गहने कहां से बनते हैं?
डॉक्टर- यह बात नहीं है जियाराम, उनकी आमदनी सचमुच बहुत कम हो गयी है। तुम उन्हें बहुत दिक करते हो।
जियाराम- (हंसकर) मैं उन्हें दिक करता हूं? मुझससे कसम ले लीजिए, जो कभी उनसे बोलता भी हूं। मुझे बदनाम करने का उन्होंने बीड़ा उठा लिया है। बेसबब, बेवजह पीछे पड़े रहते हैं। यहां तक कि मेरे दोस्तों से भी उन्हें चिढ़ है। आप ही सोचिए, दोस्तों के बगैर कोई जिन्दा रह सकता है? मैं कोई लुच्चा नहीं हू कि लुच्चों की सोहबत रखूं, मगर आप दोस्तों ही के पीछे मुझे रोज सताया करते हैं। कल तो मैंने साफ कह दिया- मेरे दोस्त घर आयेंगे, किसी को अच्छा लगे या बुरा। जनाब, कोई हो, हर वक्त की धौंस हीं सह सकता।
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