मुंशी प्रेमचंद - निर्मला

premchand nirmla premchand hindi novel

निर्मला

तेईस

पेज- 73

निर्मला ने बिगड़कर कहा- इतनी देर कहां लगायी?
सियाराम ने ढिठाई से कहा- रास्ते में एक जगह सो गया था।
निर्मला- यह तो मैं नहीं कहती, पर जानते हो कै बज गये हैं? दस कभी के बज गये। बाजार कुद दूर भी तो नहीं है।
सियाराम- कुछ दूर नहीं। दरवाजे ही पर तो है।
निर्मला- सीधे से क्यों नहीं बोलते? ऐसा बिगड़ रहे हो, जैसे मेरा ही कोई कामे करने गये हो?
सियाराम- तो आप व्यर्थ की बकवास क्यों करती हैं? लिया सौदा लौटाना क्या आसान काम है? बनिये से घंटों हुज्जत करनी पड़ी यह तो कहो, एक बाबाजी ने कह-सुनकर फेरवा दिया, नहीं तो किसी तरह न फेरता। रास्ते में कहीं एक मिनट भी न रुका, सीधा चला आता हूं।
निर्मला- घी के लिए गये-गये, तो तुम ग्यारह बजे लौटे हो, लकड़ी के लिए जाओगे, तो सांझ ही कर दोगे। तुम्हारे बाबूजी बिना खाये ही चले गये। तुम्हें इतनी देर लगानी था, तो पहले ही क्यों न कह दिया? जाते ही लकड़ी के लिए।
सियाराम अब अपने को संभाल न सका। झल्लाकर बोला- लकड़ी किसी और से मंगाइए। मुझे स्कूल जाने को देर हो रही है।
निर्मला- खाना न खाओगे?
सियाराम- न खाऊंगा।
निर्मला- मैं खाना बनाने को तैयार हूं। हां, लकड़ी लाने नहीं जा सकती।
सियाराम- भूंगी को क्यों नहीं भेजती?
निर्मला- भूंगी का लाया सौदा तुमने कभी देखा नहीं हैं?
सियाराम- तो मैं इस वक्त न जाऊंगा।
निर्मला- मुझे दोष न देना।
सियाराम कई दिनों से स्कूल नहीं गया था। बाजार-हाट के मारे उसे किताबें देखने का समय ही न मिलता था। स्कूल जाकर झिड़कियां खान, से बेंच पर खड़े होने या ऊंची टोपी देने के सिवा और क्या मिलता? वह घर से किताबें लेकर चलता, पर शहर के बाहर जाकर किसी वृक्ष की छांह में बैठा रहता या पल्टनों की कवायद देखता। तीन बजे घर से लौट आता। आज भी वह घर से चला, लेकिन बैठने में उसका जी न लगा, उस पर आंतें अल ग जल रही थीं। हा! अब उसे रोटियों के भी लाले पड़ गये। दस बजे क्या खाना न बन सकता था? माना कि बाबूजी चले गये थे। क्या मेरे लिए घर में दो-चार पैसे भी न थे? अम्मां होतीं, तो इस तरह बिना कुछ खाये-पिये आने देतीं? मेरा अब कोई नहीं रहा।
सियाराम का मन बाबाजी के दर्शन के लिए व्याकुल हो उठा। उसने सोचा- इस वक्त वह कहां मिलेंगे? कहां चलकर देखूं? उनकी मनोहर वाणी, उनकी उत्साहप्रद सान्त्वना, उसके मन को खींचने लगी। उसने आतुर होकर कहा- मैं उनके साथ ही क्यों न चला गया? घर पर मेरे लिए क्या रखा था?
वह आज यहां से चला तो घर न जाकर सीधा घी वाले साहजी की दुकान पर गया। शायद बाबाजी से वहां मुलाकात हो जाये, पर वहां बाबाजी न थे। बड़ी देर तक खड़ा-खड़ा लौट आया।
घर आकर बैठा ही था किस निर्मला ने आकर कहा- आज देर कहां लगाई? सवेरे खाना नहीं बना, क्या इस वक्त भी उपवास होगा? जाकर बाजार से कोई तरकारी लाओ।
सियाराम ने झल्लाकर कहा- दिनभर का भूखा चला आता हूं; कुछ पीनी पीने तक को लाई नहीं, ऊपर से बाजार जाने का हुक्म दे दिया। मैं नहीं जाता बाजार, किसी का नौकर नहीं हूं। आखिर रोटियां ही तो खिलाती हो या और कुछ? ऐसी रोटियां जहां मेहनत करुंगा, वहीं मिल जायेंगी। जब मजूरी ही करनी है, तो आपकी न करुंगा, जाइए मेरे लिए खाना मत बनाइएगा।
निर्मला अवाक् रह गयी। लड़के को आज क्या हो गया? और दिन तो चुपके से जाकर काम कर लाता था, आज क्यों त्योरियां बदल रहा है? अब भी उसको यह न सूझी कि सियाराम को दो-चार पैसे कुछ खाने के दे दे। उसका स्वभाव इतना कृपण हो गया था, बोली- घर का काम करना तो मजूरी नहीं कहलाती। इसी तरह मैं भी कह दूं कि मैं खाना नहीं पकाती, तुम्हारे बाबूजी कह दें कि कचहरी नहीं जाता, तो क्या हो बताओ? नहीं जाना चाहते, तो मत जाओ, भूंगी से मंगा लूंगी। मैं क्या जानती थी कि तुम्हें बाजार जाना बुरा लगता है, नहीं तो बला से धेले की चीज पैसे में आती, तुम्हें न भेजती। लो, आज से कान पकड़ती हूं।
सियाराम दिल में कुछ लज्जित तो हुआ, पर बाजार न गया। उसका ध्यान बाबाजी की ओर लगा हुआ था। अपने सारे दुखों का अन्त और जीवन की सारी आशाएं उसे अब बाबाजी क आशीर्वाद में मालूम होती थीं। उन्हीं की शरण जाकर उसका यह आधारहीन जीवन सार्थक होगा। सूर्यास्त के समय वह अधीर हो गया। सारा बाजार छान मारा, लेकिन बाबाजी का कहीं पता न मिला। दिनभर का भूख-प्यासा, वह अबोध बालक दुखते हुए दिल को हाथों से दबाये, आशा और भय की मूर्ति बना, दुकानों, गालियों और मन्दिरों में उस आश्रमे को खोजता फिरता था, जिसके बिना उसे अपना जीवन दुस्सह हो रहा था। एक बार मन्दिर के सामने उसे कोई साधु खड़ा दिखाई दिया। उसने समझा वही हैं। हर्षोल्लास से वह फूल उठा। दौड़ा और साधु के पास खड़ा हो गया। पर यह कोई और ही महात्मा थे। निराश हो कर आगे बढ़ गया।

 

पिछला पृष्ठ निर्मला अगला पृष्ठ
प्रेमचंद साहित्य का मुख्यपृष्ट हिन्दी साहित्य का मुख्यपृष्ट

 

 

 

top