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मुंशी प्रेमचंद
वरदान
10 सुशीला की मृत्यु
पेज- 21
जब कुछ अवकाश हआ तो उसने सुवामा के सम्मुख हाथ जोड़े और रोकर कहा- ‘बहिन’। विरजन तुम्हारे समर्पण है। तुम्हीं उसकी मता हो। लल्लू। प्यारे। ईश्वर करे तुम जुग-जुग जीओ। अपनी विरजन को भूलना मत। यह तुम्हारी दीना और मातृहीना बहिन है। तुममें उसके प्राण बसते है। उसे रूलाना मत, उसे कुढाना मत, उसे कभी कठोर वचन मत कहना। उससे कभी न रूठना। उसकी ओर से बेसुध न होना, नहीं तो वह रो-रो कर प्राण दे देगी। उसके भाग्य में न जाने क्या बदा है, पर तुम उसे अपनी सगी बहिन समझकर सदा ढाढस देते रहना। मैं थोड़ी देर में तुम लोगों को छोडकर चली जाऊंगी, पर तुम्हें मेरी सोह, उसकी ओर से मन मोटा न करना तुम्हीं उसका बेड़ा पार लगाओगे। मेरे मन में बड़ी-बड़ी अभिलाषाएं थीं, मेरी लालसा थी कि तुम्हारा ब्याह करूंगी, तुम्हारे बच्चे को खिलाउंगी। पर भाग्य में कुछ और ही बदा था।
यह कहते-कहते वह फिर अचेत हो गयी। सारा घर रो रहा था। महरियां, महराजिनें सब उसकी प्रशंसा कर रही थी कि स्त्री नहीं, देवी थी।
रधिया-इतने दिन टहल करते हुए, पर कभी कठोर वचन न कहा।
महराजिन-हमको बेटी की भांति मानती थीं। भोजन कैसा ही बना दूं पर कभी नाराज नहीं हुई। जब बातें करतीं, मुस्करा के। महराज जब आते तो उन्हें जरूर सीधा दिलवाती थी।
सब इसी प्रकार की बातें कर रहे थे। दोपहर का समय हुआ। महराजिन ने भोजन बनाया, परन्तु खाता कौन ? बहुत हठ करने पर मुंशीजी गये और नाम करके चले आये। प्रताप चौके पर गया भी नहीं। विरजन और सुवामा को गले लगाती, कभी प्रताप को चूमती और कभी अपनी बीती कह-कहकर रोती। तीसरे पहर उसने सब नौकरों को बुलाया और उनसे अपराध क्षमा कराया। जब वे सब चले गये तब सुशीला ने सुवामा से कहा- बहिन प्यास बहुत लगती है। उनसे कह दो अपने हाथ से थोड़ा-सा पानी पिला दें। मुंशीजी पानी लाये। सुशीला ने कठिनता से एक घूंट पानी कण्ठ से नीचे उतारा और ऐसा प्रतीत हुआ, मानो किसी ने उसे अमृत पिला दिया हो। उसका मुख उज्जवल हो गया आंखों में जल भर आया। पति के गले में हाथ डालकर बोली—मै ऐसी भाग्यशालिनी हूं कि तुम्हारी गोद में मरती हूं। यह कहकर वह चुप हो गयी, मानों कोई बात कहना ही चाहती है, पर संकोच से नहीं कहती। थोडी देर पश्चात् उसने फिर मुंशीजी का हाथ पकड़ लिया और कहा-‘यदि तुमसे कुछ मांगू,तो दोगे ?
मुंशीजी ने विस्मित होकर कहा-तुम्हारे लिए मांगने की आवश्यकता है? नि:संकोच कहो।
सुशीला-तुम मेरी बात कभी नहीं टालते थे।
मुन्शीजी-मरते दम तक कभी न टालूंगा।
सुशीला-डर लगता है, कहीं न मानो तो...
मुन्शीजी-तुम्हारी बात और मैं न मानूं ?
सुशीला-मैं तुमको न छोडूंगी। एक बात बतला दो-सिल्ली(सुशीला)मर
जायेगी, तो उसे भूल जाओगे ?
मुन्शीजी-ऐसी बात न कहो, देखो विरजन रोती है।
सुशीला-बतलाओं, मुझे भूलोगे तो नहीं ?
मुन्शीजी-कभी नहीं।
सुशीला ने अपने सूखे कपोल मुशींजी के अधरों पर रख दिये और दोनों बांहें उनके गले में डाल दीं। फिर विरजन को निकट बुलाकर धीरे-धीरे समझाने लगी-देखो बेटी। लालाजी का कहना हर घडी मानना, उनकी सेवा मन लगाकर करना। गृह का सारा भर अब तुम्हारे ही माथे है। अब तुम्हें कौन सभांलेगा ? यह कह कर उसने स्वामी की ओर करूणापूर्ण नेत्रों से देखा और कहा- मैं अपने मन की बात नहीं कहने पायी, जी डूबा जाता है।
मुन्शीजी-तुम व्यर्थ असमंजस में पडी हो।
सुशीला-तुम मरे हो कि नहीं ?
मुन्शीजी-तुम्हारा और आमरण तुम्हारा।
सुशीला- ऐसा न हो कि तुम मुझे भूल जाओं और जो वस्तु मेरी थी वह अन्य के हाथ में चली जाए।
सुशीला ने विरजन को फिर बुलाया और उसे वह छाती से लगाना ही चाहती थी कि मूर्छित हो गई। विरजन और प्रताप रोने लगे। मुंशीजी ने कांपते हुए सुशीला के हृदय पर हाथ रखा। सांस धीरे-धीरे चल रही थी। महराजिन को बुलाकर कहा-अब इन्हें भूमि पर लिटा दो। यह कह कर रोने लगे। महराजिन और सुवामा ने मिलकर सुशीला को पृथ्वी पर लिटा दिया। तपेदिक ने हडिडयां तक सुखा डाली थी।
अंधेरा हो चला था। सारे गृह में शोकमय और भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। रोनेवाले रोते थे, पर कण्ठ बांध-बांधकर। बातें होती थी, पर दबे स्वरों से। सुशीला भूमि पर पडी हुई थी। वह सुकुमार अंग जो कभी माता के अंग में पला, कभी प्रेमांक में प्रौढा, कभी फूलों की सेज पर सोया, इस समय भूमि पर पडा हुआ था। अभी तक नाडी मन्द-मन्द गति से चल रही थी। मुंशीजी शोक और निराशानद में मग्न उसके सिर की ओर बैठे हुए थे। अकस्समात् उसने सिर उठाया और दोनों हाथों से मुंशीजी का चरण पकड़ लिया। प्राण उड़ गये। दोनों कर उनके चरण का मण्डल बांधे ही रहे। यह उसके जीवन की अंतिम क्रिया थी।
रोनेवालो, रोओ। क्योंकि तुम रोने के अतिरिक्त कर ही क्या सकते हो? तुम्हें इस समय कोई कितनी ही सान्त्वना दे, पर तुम्हारे नेत्र अश्रु-प्रवाह को न रोक सकेंगे। रोना तुम्हारा कर्तव्य है। जीवन में रोने के अवसर कदाचित मिलते हैं। क्या इस समय तुम्हारे नेत्र शुष्क हो जायेगें ? आंसुओं के तार बंधे हुए थे, सिसकियों के शब्द आ रहे थे कि महराजिन दीपक जलाकर घर में लायी। थोडी देर पहिले सुशीला के जीवन का दीपक बुझ चुका था।
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