मुंशी प्रेमचंद

वरदान

15 कर्तव्य और प्रेम का संघर्ष

पेज- 32

यह कहकर वह बोर्डिंग हाउस की ओर चला। सैकड़ों मनुष्य पूछने लगे-क्या है ?  क्या है ?  लोगों के मुख पर उदासी छा गयी पर उसे बात करने का कहॉँ अवकाश ! उसी समय तॉँगे पर चढ़ा और स्टेशन की ओर चला। रास्ते-भर उसके मन में तर्क-वितर्क होते रहे। बार-बार अपने को धिक्कार  देता कि क्यों न चलते समय उससे मिल लिया ?  न जाने अब भेंट हो कि न हो। ईश्वर न करे कहीं उसके दर्शन से वंचित रहूँ;  यदि रहा तो मैं भी मुँह मे कालिख पोत कहीं मर रहूँगा। यह सोच कर कई बार रोया। नौ बजे रात को गाड़ी बनारस पहुँची। उस पर से उतरते ही सीधा श्यामाचरण के घर की ओर चला। चिन्ता के मारे ऑंखें डबडबायी हुईं थी और कलेजा धड़क रहा था। डिप्टी साहब सिर झुकाये कुर्सी पर बैठे थे और कमला डाक्टर साहब के यहॉँ जाने को उद्यत था। प्रतापचन्द्र को देखते ही दौड़कर लिपट गया। श्यामाचरण ने भी गले लगाया और बोले-क्या अभी सीधे इलाहाबाद से चले आ रहे हो ?
प्रताप-जी हॉँ ! आज माताजी का तार पहुँचा कि विरजन की बहुत बुरी दशा है। क्या अभी वही दशा है ?
श्यामाचरण-क्या कहूँ इधर दो-तीन मास से दिनोंदिन उसका शरीर क्षीण होता जाता है, औषधियों का कुछ भी असर नहीं होता। देखें, ईश्वर की क्या इच्छा है! डाक्टर साहब तो कहते थे, क्षयरोग है। पर वैद्यराज जी हृदय-दौर्बल्य बतलाते हैं।
विरजन को जब से सूचना मिली कि प्रतापचन्द्र आये हैं, तब से उसक हृदय में आशा और भय घुड़दौड़ मची हुई थी। कभी सोचती कि घर आये होंगे, चाची ने बरबस ठेल-ठालकर यहॉँ भेज दिया होगा। फिर ध्यान हुआ, हो न हो, मेरी बीमारी का समाचार पा, घबड़ाकर चले आये हों, परन्तु नहीं। उन्हें मेरी ऐसी क्या चिन्ता पड़ी है ? सोचा होगा-नहीं मर न जाए, चलूँ सांसारिक व्यवहार पूरा करता आऊं। उन्हें मेरे मरने-जीने का क्या सोच ? आज मैं भी महाशय से जी खोलकर बातें करुंगी ? पर नहीं बातों की आवश्यकता ही क्या है ?  उन्होंने चुप साधी है, तो मैं क्या बोलूँ ? बस इतना कह दूँगी कि बहुत अच्छी हूँ और आपके कुशल की कामना रखती हूँ ! फिर मुख न खोलूँगी ! और मैं यह मैली-कुचैली साड़ी क्यों पहिने हूँ ?  जो अपना सहवेदी न हो उसके आगे यह वेश बनाये रखने से लाभ? वह अतिथि की भॉँति आये हैं। मैं भी पाहुनी की भॉँति उनसे मिलूँगी। मनुष्य का चित्त कैसा चचंल है? जिस मनुष्य की अकृपा ने विरजन की यह गति बना दी थी, उसी को जलाने के लिए ऐसे-ऐसे उपाय सोच रही है।
दस बजे का समय था। माधवी बैठी पख झल रही थी। औषधियों की शीशियाँ इधर-उधर पड़ी हुई थीं और विरजन चारपाई पर पड़ी हुई ये ही सब बातें सोच रही थी कि प्रताप घर में आया। माधवी चौंककर बोली-बहिन, उठो आ गये। विरजन झपटकर उठी और चारपाई से उतरना चाहती थी कि निर्बलता के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ी। प्रताप ने उसे सँभाला और चारपाई पर लेटा दिया। हा! यह वही विरजन है जो आज से कई मास पूर्व रुप    एवं लावाण्य की मूर्ति थी, जिसके मुखड़े पर चमक और ऑखों में हँसी का वपास था, जिसका भाषण श्यामा का गाना और हँसना मन का लुभानाथ। वह रसीली ऑखोंवाली, मीठी बातों वाली विरजन आज केवल अस्थिचर्मावशेष है। पहचानी नहीं जाती। प्रताप की ऑखों में ऑंसूं भर आये। कुशल पूछना चाहता था, पर मुख से केवल इतना निकला-विरजन !  और नेत्रों से जल-बिन्दु बरसने लगे। प्रेम की ऑंखे मनभावों के परखने की कसौटी है।  विरजन ने ऑंख उठाकर देखा और उन अश्रु-बिन्दुओं ने उसके मन का सारा मैल धो दिया।

     जैसे कोई सेनापति आनेवाले युद्व का चित्र मन में सोचता है और शत्रु को अपनी पीठ पर देखकर बदहवास हो जाता है और उसे निर्धरित चित्र का कुछ ध्यान भी नहीं रहता, उसी प्रकार विरजन प्रतापचन्द्र को अपने सम्मुख देखकर सब बातें भूल गयी, जो अभी पड़ी-पड़ी सोच रही थी ! वह प्रताप को रोते देखकर अपना सब दु:ख भूल गयी और चारपाई से उठाकर ऑंचल से ऑसूं पोंछने लगी। प्रताप, जिसे अपराधी कह सकते हैं, इस समय दीन बना हुआ था और विरजन –जिसने अपने को सखकर इस श तक पहुँचाया था-रो-रोकर उसे कह रही थी- लल्लू चुप रहो, ईश्वर जानता है, मैं भली-भॉँति अच्छी हूँ। मानो अच्छा न होना उसका अपराध था। स्त्रीयों की संवेदनशीलता कैसी कोमल होती है! प्रतापचन्द्र के एक सधारण संकोच ने विरजन को इस जीवन से उपेक्षित बना दिया था। आज ऑंसू कुछ बूँदों की उसके हृदय के उस सन्ताप, उस जलन और उस अग्नि कोशन्त कर दिया, जो कई महीनों से उसके रुधिर और हृदय को जला रही थी। जिस रेग को बड़े-बड़े वैद्य और डाक्टर अपनी औषधि तथा उपाय से अच्छा न कर सके थे, उसे अश्रु-बिन्दुओं ने क्षण-भर में चंगा कर दिया। क्या वह पानी के बिन्दु अमृत के बिन्दु थे ?

 

पिछला पृष्ठ वरदान अगला पृष्ठ
प्रेमचंद साहित्य का मुख्यपृष्ट हिन्दी साहित्य का मुख्यपृष्ट

 

Kamasutra in Hindi

 

 

top