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मुंशी प्रेमचंद
वरदान
23 काशी में आगमन
पेज- 63
रुकमिणी – हाँ, तुम्हारा रंग गोरा है न? और वस्त्र-आभूषणों से सजी बहुत हो। बस इतना ही अन्तर है कि और कुछ?
चन्द्रकुँवरि- इतना ही अन्तर क्यों हैं? पृत्वी आकाश से मिलाती हो? यह मुझे अच्छा नहीं लगता। मुझे कछवाहों वंश में हूँ, कुछ खबर है?
रुक्मिणी- हाँ, जानती हूँ और नहीं जानती थी तो अब जान गयी। तुम्हारे ठाकुर साहब (पति) किसी पासी से बढकर मल्ल –युद्व करेंगें? यह सिर्फ टेढी पाग रखना जानते हैं? मैं जानती हूं कि कोई छोटा –सा पासी भी उन्हें काँख –तले दबा लेगा।
विरजन - अच्छा अब इस विवाद को जाने तो। तुम दोनों जब आती हो, लडती हो आती हो।
सेवती- पिता और पुत्र का कैसा संयोग हुआ है? ऐसा मालुम होता हैं कि मुंशी शलिग्राम ने प्रतापचन्द्र ही के लिए संन्यास लिया था। यह सब उन्हीं कर शिक्षा का फल हैं।
रक्मिणी – हां और क्या? मुन्शी शलिग्राम तो अब स्वामी ब्रह्रमानन्द कहलाते हैं। प्रताप को देखकर पहचान गये होगें ।
सेवती – आनन्द से फूले न समाये होगें।
रुक्मिणी-यह भी ईश्वर की प्रेरणा थी, नहीं तो प्रतापचन्द्र मानसरोवर क्या करने जाते?
सेवती–ईश्वर की इच्छा के बिना कोई बात होती है?
विरजन–तुम लोग मेरे लालाजी को तो भूल ही गयी। ऋषीकेश में पहले लालाजी ही से प्रतापचनद्र की भेंट हुई थी। प्रताप उनके साथ साल-भर तक रहे। तब दोनों आदमी मानसरोवर की ओर चले।
रुक्मिणी–हां, प्राणनाथ के लेख में तो यह वृतान्त था। बालाजी तो यही कहते हैं कि मुंशी संजीवनलाल से मिलने का सौभाग्य मुझे प्राप्त न होता तो मैं भी मांगने–खानेवाले साधुओं में ही होता।
चन्द्रकुंवरि-इतनी आत्मोन्नति के लिए विधाता ने पहले ही से सब सामान कर दिये थे।
सेवती–तभी इतनी–सी अवस्था में भारत के सुर्य बने हुए हैं। अभी पचीसवें वर्ष में होगें?
विरजन – नहीं, तीसवां वर्ष है। मुझसे साल भर के जेठे हैं।
रुक्मिणी -मैंने तो उन्हें जब देखा, उदास ही देखा।
चन्द्रकुंवरि – उनके सारे जीवन की अभिलाषाओं पर ओंस पड़ गयी। उदास क्यों न होंगी?
रुक्मिणी – उन्होने तो देवीजी से यही वरदान मांगा था।
चन्द्रकुंवरि – तो क्या जाति की सेवा गृहस्थ बनकर नहीं हो सकती?
रुक्मिणी – जाति ही क्या, कोई भी सेवा गृहस्थ बनकर नहीं हो सकती। गृहस्थ केवल अपने बाल-बच्चों की सेवा कर सकता है।
चन्द्रकुंवरि – करनेवाले सब कुछ कर सकते हैं, न करनेवालों के लिए सौ बहाने हैं।
एक मास और बीता। विरजन की नई कविता स्वागत का सन्देशा लेकर बालाजी के पास पहुची परन्तु यह न प्रकट हुआ कि उन्होंने निमंत्रण स्वीकार किया या नहीं। काशीवासी प्रतीक्षा करते–करते थक गये। बालाजी प्रतिदिन दक्षिण की ओर बढते चले जाते थे। निदान लोग निराश हो गये और सबसे अधीक निराशा विरजन को हुई।
एक दिन जब किसी को ध्यान भी न था कि बालाजी आयेंगे, प्राणनाथ ने आकर कहा–बहिन। लो प्रसन्न हो जाओ, आज बालाजी आ रहे हैं।
विरजन कुछ लिख रही थी, हाथों से लेखनी छूट पडी। माधवी उठकर द्वार की ओर लपकी। प्राणनाथ ने हंसकर कहा – क्या अभी आ थोड़े ही गये हैं कि इतनी उद्विग्न हुई जाती हो।
माधवी – कब आयंगें इधर से हीहोकर जायंगें नए?
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