अरण्यकाण्ड
अरण्यकाण्ड पेज 12
रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी।।
जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली।।
निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीं।।
गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी।।
अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ।।
आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना।।
हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता।।
लछिमन समुझाए बहु भाँती। पूछत चले लता तरु पाँती।।
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।।
खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना।।
कुंद कली दाड़िम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी।।
बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा।।
श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न संक सकुच मन माहीं।।
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू।।
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं । प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं।।
एहि बिधि खौजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी।।
पूरनकाम राम सुख रासी। मनुज चरित कर अज अबिनासी।।
आगे परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा।।
दो0-कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रधुबीर।।
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर।।30।।
तब कह गीध बचन धरि धीरा । सुनहु राम भंजन भव भीरा।।
नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही।।
लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाई। बिलपति अति कुररी की नाई।।
दरस लागी प्रभु राखेंउँ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना।।
राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसकाइ कही तेहिं बाता।।
जा कर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होई श्रुति गावा।।
सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगेँ।।
जल भरि नयन कहहिँ रघुराई। तात कर्म निज ते गतिं पाई।।
परहित बस जिन्ह के मन माहीँ। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ।।
तनु तजि तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा।।
दो0-सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।।
जौँ मैँ राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ।।31।।
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217