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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अरण्यकाण्ड

अरण्यकाण्ड पेज 5

एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुभंज रिषि पासा।।
बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ।।
अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं।।
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसै द्वौ भाई।।
पंथ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा।।
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ। करि दंडवत कहत अस भयऊ।।
नाथ कौसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा।।
राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही।।
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए।।
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई।।
सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी।।
पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा।।
जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा। हरषे सब बिलोकि सुखकंदा।।

दो0-मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर।
सरद इंदु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर।।12।।


तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही।।
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ।।
अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही।।
मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी।।
तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी।।
ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्मांड अनेक निकाया।।
जीव चराचर जंतु समाना। भीतर बसहि न जानहिं आना।।
ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला।।
ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं।।
यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता।।
अबिरल भगति बिरति सतसंगा। चरन सरोरुह प्रीति अभंगा।।
जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता।।
अस तव रूप बखानउँ जानउँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ।।
संतत दासन्ह देहु बड़ाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई।।
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पंचबटी तेहि नाऊँ।।
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू।।
बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया।।
चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पंचबटी निअराई।।

दो0-गीधराज सैं भैंट भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ।।
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ।।13।।


जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा।।
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए।।
खग मृग बृंद अनंदित रहहीं। मधुप मधुर गंजत छबि लहहीं।।
सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा।।
एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना।।
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई।।
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा।।
कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया।।

दो0- ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ।।14।।

 

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