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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 24

सखा समुझि अस परिहरि मोहु। सिय रघुबीर चरन रत होहू।।
कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा।।
सकल सोच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा।।
अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए।।
हृदयँ दाहु अति बदन मलीना। कह कर जोरि बचन अति दीना।।
नाथ कहेउ अस  कोसलनाथा। लै रथु जाहु राम कें साथा।।
बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई।।
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच निबेरी।।

दो0-नृप अस कहेउ गोसाईँ जस कहइ करौं बलि सोइ।
करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ।।94।।


तात कृपा करि कीजिअ सोई। जातें अवध अनाथ न होई।।
मंत्रहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा।।
सिबि दधीचि हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा।।
रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना।।
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।।
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा।।
संभावित कहुँ अपजस लाहू। मरन कोटि सम दारुन दाहू।।
तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ।।

दो0-पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि।
चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि।।95।।

तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें।।
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें।।
सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू।।
पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी।।
सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई।।
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू।।
जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया।।
नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना।।

दो0-मइकें ससरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान।।
तँह तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान।।96।।


बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती।।
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना।।
सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरतु त सब कर मिटै खभारू।।
सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही।।
प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी।।
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई।।
पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई।।
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी।।

दो0-आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात।
आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात।।97।।

 

 

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