अयोध्याकाण्ड
अयोध्याकाण्ड पेज 30
कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे।।
सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी।।
तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ सकोच सकुचित बरबरनी।।
सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी।।
सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखनु लघु देवर मोरे।।
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी।।
खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि।।
भइ मुदित सब ग्रामबधूटीं। रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं।।
दो0-अति सप्रेम सिय पायँ परि बहुबिधि देहिं असीस।
सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस।।117।।
पारबती सम पतिप्रिय होहू। देबि न हम पर छाड़ब छोहू।।
पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी। जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी।।
दरसनु देब जानि निज दासी। लखीं सीयँ सब प्रेम पिआसी।।
मधुर बचन कहि कहि परितोषीं। जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं।।
तबहिं लखन रघुबर रुख जानी। पूँछेउ मगु लोगन्हि मृदु बानी।।
सुनत नारि नर भए दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी।।
मिटा मोदु मन भए मलीने। बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने।।
समुझि करम गति धीरजु कीन्हा। सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा।।
दो0-लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ।
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ।।118।।
फिरत नारि नर अति पछिताहीं। देअहि दोषु देहिं मन माहीं।।
सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं।।
निपट निरंकुस निठुर निसंकू। जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंकू।।
रूख कलपतरु सागरु खारा। तेहिं पठए बन राजकुमारा।।
जौं पे इन्हहि दीन्ह बनबासू। कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू।।
ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना।।
ए महि परहिं डासि कुस पाता। सुभग सेज कत सृजत बिधाता।।
तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा। धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा।।
दो0-जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सुठि सुकुमार।
बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार।।119।।
जौं ए कंद मूल फल खाहीं। बादि सुधादि असन जग माहीं।।
एक कहहिं ए सहज सुहाए। आपु प्रगट भए बिधि न बनाए।।
जहँ लगि बेद कही बिधि करनी। श्रवन नयन मन गोचर बरनी।।
देखहु खोजि भुअन दस चारी। कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी।।
इन्हहि देखि बिधि मनु अनुरागा। पटतर जोग बनावै लागा।।
कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। तेहिं इरिषा बन आनि दुराए।।
एक कहहिं हम बहुत न जानहिं। आपुहि परम धन्य करि मानहिं।।
ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे। जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे।।
दो0-एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर।
किमि चलिहहि मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर।।120।।
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217