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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 38

पुनि पुनि पूँछत मंत्रहि राऊ। प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ।।
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ।।
सचिव धीर धरि कह मुदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी।।
बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा।।
जनम मरन सब दुख भोगा। हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा।।
काल करम बस हौहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं।।
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।।
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी।।

दो0-प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर।
न्हाई रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर।।150।।


केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई।।
होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा।।
राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाइ चढ़े रघुराई।।
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई।।
बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा।।
तात प्रनामु तात सन कहेहु। बार बार पद पंकज गहेहू।।
करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी।।
बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें।।

छं0- तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं।।
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करेहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसल धनी।।
सो0-गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि।
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति।।151।।

पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी।।
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी।।
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ।।
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी।।
ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई।।
तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ।।
लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा।।
बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लरिकाई।।

दो0-कहि प्रनाम कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह।
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह।।152।।


तेहि अवसर रघुबर रूख पाई। केवट पारहि नाव चलाई।।
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती।।
मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू।।
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ।।
सुत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू।।
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा।।
करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी।।
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा।।

दो0-भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु।
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु।।153।।

 

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