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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 40

चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके।।
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई।।
एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई।।
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा।।
खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला।।
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा।।
खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए।।
नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी।।

दो0-पुरजन मिलिहिं न कहहिं कछु गवँहिं जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं।।158।।


हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी।।
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि।।
सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेंटि भवन लेइ आई।।
भरत दुखित परिवारु निहारा। मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा।।
कैकेई हरषित एहि भाँति। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती।।
सुतहि ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें।।
सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई।।
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता।।

दो0-सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन।।159।।


तात बात मैं सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय बिचारी।।
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ।।
सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा।।
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी।।
चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही।।
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी।।
सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई।।
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी।।

दो0-भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु।।160।।


बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति।।
तात राउ नहिं सोचे जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू।।
जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए।।
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू।।
सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू।।
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापनि सबहि भाँति कुल नासा।।
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही।।
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा।।

दो0-हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ।।161।।

 

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