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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 46

कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई।।
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई।।
तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका।।
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही।।
मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई।।
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं।।
परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिनु मोर नहि दूषन काहू।।
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू।।

दो0-राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि।।181।


गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना।।
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ।।
परिहरि रामु सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं।।
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी।।
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू।।
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी।।
जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि राम चरन मनु लावा।।
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी।।

दो0-आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ।
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ।।182।।


आन उपाउ मोहि नहि सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा।।
एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं।।
जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन सकल उपाधी।।
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी।।
सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ।।
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा।।
तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी।।
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी।।

दो0-जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस।
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस।।183।।


भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे।।
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे।।
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी।।
भरतहि कहहि सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही।।
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू।।
जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई।।
सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता।।
अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई।।

दो0-अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह।
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह।।184।।

 

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