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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 52

जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही।।
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।।
जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ।।
चातकु रटनि घटें घटि जाई। बढ़े प्रेमु सब भाँति भलाई।।
कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें।।
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी।।
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू।।
बाद गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं।।

दो0-तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल।।205।।


प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी।।
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेह सीलु सुचि साँचा।।
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए।।
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे।।
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे।।
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे।।
मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू।।
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई।।

दो0-तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझी मातु करतूति।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति।।206।।


यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेद बुध संमत दोऊ।।
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई।।
लोक बेद संमत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई।।
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई।।
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला।।
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी।।
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू।।
करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू।।

दो0-अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु।।207।।


सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना।।
यह तम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता।।
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं।।
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती।।
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा।।
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें।।
यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई।।
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू।।

दो0-तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु।।208।।

 

 

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