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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 8

सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका।।
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी।।
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू।।
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा।।
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू।।
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन।।
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला।।
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं।।

दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास।।29।।


एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा।।
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।।
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे।।
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं।।
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू।।
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना।।
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा।।
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई।।

दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ।।30।।

आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी।।
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई।।
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा।।
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती।।
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती।।
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी।।
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता।।
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई।।

दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति।।31।।

राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ।।
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें।।
रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू।।
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा।।
अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा।।
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू।।
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू।।
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला।।

दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।
जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु।।32।।

 

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