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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

बालकाण्ड

बालकाण्ड पेज 96

सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू।।
जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे।।
लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता।।
बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं।।
देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनंद कियो बासू।।
कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि हरषु होत सब काहू।।
जनक राज गुन सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई।।
बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी।।

दो0-सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।
भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति।।354।।


मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि।।
अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए।।
रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई।।
प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़ाई। समउ समाजु मनोहरताई।।
कहि न सकहि सत सारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू।।
सो मै कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी।।
नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी।।
बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई।।

दो0-लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।
अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ।।355।।


भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए।।
सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना।।
उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं।।
रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा।।
सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए।।
अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही।।
देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता।।
मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी।।

दो0-घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु।।
मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु।।356।।


मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी।।
मख रखवारी करि दुहुँ भाई। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई।।
मुनितय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी।।
कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा।।
बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई।।
सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे।।
आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा।।
जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें।।

दो0-राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।
सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन।।357।।

नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना।।
घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं।।
पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी।।
सुंदर बधुन्ह सासु लै सोई। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई।।
प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे।।
बंदि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए।।
बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता।।
जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे।।

दो0-कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।
प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ।।358।।

नवान्हपारायण,तीसरा विश्राम

 

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