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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

किष्किन्धाकाण्ड

किष्किन्धाकाण्ड पेज 8

कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा।।
बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोउ मुनि मिलत ताहि सब घेरहिं।।
लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलइ न जल घन गहन भुलाने।।
मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना।।
चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा। भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा।।
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं।।
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा।।
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा।।

दो0-दीख जाइ उपवन बर सर बिगसित बहु कंज।
मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज।।24।।


दूरि ते ताहि सबन्हि सिर नावा। पूछें निज बृत्तांत सुनावा।।
तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुंदर फल नाना।।
मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए। तासु निकट पुनि सब चलि आए।।
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई।।
मूदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहि जनि पछिताहू।।
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा।।
सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा। जाइ कमल पद नाएसि माथा।।
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही। अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही।।

दो0-बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस ।
उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस।।25।।


इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं।।
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता।।
कह अंगद लोचन भरि बारी। दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी।।
इहाँ न सुधि सीता कै पाई। उहाँ गएँ मारिहि कपिराई।।
पिता बधे पर मारत मोही। राखा राम निहोर न ओही।।
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संसय नाहीं।।
अंगद बचन सुनत कपि बीरा। बोलि न सकहिं नयन बह नीरा।।
छन एक सोच मगन होइ रहे। पुनि अस वचन कहत सब भए।।
हम सीता कै सुधि लिन्हें बिना। नहिं जैंहैं जुबराज प्रबीना।।
अस कहि लवन सिंधु तट जाई। बैठे कपि सब दर्भ डसाई।।
जामवंत अंगद दुख देखी। कहिं कथा उपदेस बिसेषी।।
तात राम कहुँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रम्ह अजित अज जानहु।।

दो0-निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि।
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि।।26।।

एहि बिधि कथा कहहि बहु भाँती गिरि कंदराँ सुनी संपाती।।
बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा।।
आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ। दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ।।
कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा। आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा।।
डरपे गीध बचन सुनि काना। अब भा मरन सत्य हम जाना।।
कपि सब उठे गीध कहँ देखी। जामवंत मन सोच बिसेषी।।
कह अंगद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कोउ नाहीं।।
राम काज कारन तनु त्यागी । हरि पुर गयउ परम बड़ भागी।।
सुनि खग हरष सोक जुत बानी । आवा निकट कपिन्ह भय मानी।।
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई। कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई।।
सुनि संपाति बंधु कै करनी। रघुपति महिमा बधुबिधि बरनी।।

दो0- मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि ।
बचन सहाइ करवि मैं पैहहु खोजहु जाहि ।।27।।

 

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