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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

लंकाकाण्ड

लंकाकाण्ड पेज 6

रे कपिपोत बोलु संभारी। मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी।।
कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई।।
अंगद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भई ही भेटा।।
अंगद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना।।
अंगद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक।।
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु।।
अब कहु कुसल बालि कहँ अहई। बिहँसि बचन तब अंगद कहई।।
दिन दस गएँ बालि पहिं जाई। बूझेहु कुसल सखा उर लाई।।
राम बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई।।
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें। श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकें।।

दो0-हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस।
अंधउ बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस।।21।


सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई।।
तासु दूत होइ हम कुल बोरा। अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा।।
सुनि कठोर बानी कपि केरी। कहत दसानन नयन तरेरी।।
खल तव कठिन बचन सब सहऊँ। नीति धर्म मैं जानत अहऊँ।।
कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी।।
देखी नयन दूत रखवारी। बूड़ि न मरहु धर्म ब्रतधारी।।
कान नाक बिनु भगिनि निहारी। छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी।।
धर्मसीलता तव जग जागी। पावा दरसु हमहुँ बड़भागी।।

दो0-जनि जल्पसि जड़ जंतु कपि सठ बिलोकु मम बाहु।
लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु।।22(क)।।
पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास।
सोभत भयउ मराल इव संभु सहित कैलास।।22(ख)।।


तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद।।
तव प्रभु नारि बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना।।
तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ।।
जामवंत मंत्री अति बूढ़ा। सो कि होइ अब समरारूढ़ा।।
सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलसीला।।
आवा प्रथम नगरु जेंहिं जारा। सुनत बचन कह बालिकुमारा।।
सत्य बचन कहु निसिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा।।
रावन नगर अल्प कपि दहई। सुनि अस बचन सत्य को कहई।।
जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन।।
चलइ बहुत सो बीर न होई। पठवा खबरि लेन हम सोई।।

दो0-सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ।
फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ।।23(क)।।
सत्य कहहि दसकंठ सब मोहि न सुनि कछु कोह।
कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह।।23(ख)।।
प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि।
जौं मृगपति बध मेड़ुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि।।23(ग)।।
जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष।
तदपि कठिन दसकंठ सुनु छत्र जाति कर रोष।।23(घ)।।
बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस।
प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस।।23(ङ)।।
हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक।
जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक।।23(छ)।।

 

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