हजरत अली खुदा के शेर थे। उनका आचरण दुर्वासनाओं से मुक्त था। एक बार युद्ध में तलावार लेकर शत्रु की तरफ झपटे। उसने हजरत अली के चेहरे पर थूक दिया। परन्तु हजरत अली अपने क्रोध को दबा गए। उन्होंने उसी समय तलवार फेंकर, इस काफिर पहलवान पर वार करने से हाथ खींच लिया। वह पहलवान उनके इस व्यवहार से ताज्जुब करने लगा कि दया-भाव प्रकट करने का यह क्या अवसर था?
उसने पूछा, ‘‘तुम अभी तो मुझप वार करना चाहते थे और अब तुरन्त ही तलवार फेंककर मुझे छोड़ दिया। इसका क्या कारण है! तुमने ऐसी क्या बात देखी कि मुझपर अधिकार प्राप्त करने के बाद भी मुकाबले से हट गये।’’
हजरत अली ने कहा, ‘‘मैं केवल खुदा के लिए तलवार चलाता हूं, क्योंकि मैं खुदा का गुलाम हूं। अपनी इन्द्रियों का दास नहीं। मैं खुद का शेर हूं दुर्वासनाओं का शेर नहीं। मेरे आचरण धर्म के साक्षी हैं। सन्तोष की तलवार ने मेरे क्रोध को भस्म कर दिया है। ईश्वर का कोप भी मेरे ऊपर दया की वर्षा करता है।
‘‘हजरत पैगम्बर ने मेरे नौकर के कान में फरमाया कि एक दिन वह मेरा सिर तन से जुदा कर दे। वह नौकर मुझसे कहता रहता है कि आप पहले मुझे ही कत्तल कर दीजिए, जिससे ऐसा घोर अपराध मुझसे न होने पाये। परन्तु मैं उसे यही जवाब देता हूं—‘जब मेरी मौत तेरे हाथ होनेवली है तो मैं खुदा के मुकाबले में बचने की क्यों कोशिश करूं?’ इसी तरह दिन-रात मैं अपने कातिल को अपनी आंखों से देखत हूं। मगर मुझे उस पर क्रोध नहीं आता, क्योंकि जिस तरह आदमी को जान प्यारी है, उसी तरह मुझको मौत प्यारी है, क्योंकि इसी मौत से मुझे दूसरा (जन्नत का) जीवन प्राप्त होगा। बिना मौत मरना हमारे लिए हलाल है और आडम्बर रहित जीवन व्यतीत करना हमारे लिए नियामत है।‘’
फिर हजरत अली ने पहलवान से कहा, ‘‘ऐ जवान! जबकि युद्ध के समय तूने मेरे मुंह पर थूका तो उसी समय मेरे विचार बदल गये। उस वक्त युद्ध का उद्देश्य आधा खुदा के वास्ते और आधा तेरे जुल्म करने का बदला लेने के लिए हो गया, हालांकि खुदा के काम में दूसरे के उद्देश्य को सम्मिलित करना उतिच नहीं है। तू मेरे मालिक की बनायी हुई मूरत है और तू उसीकी चीज है। खुद की बनायी हुई चीज को सिर्फ उसीके हुक्म से तोड़ना चाहिए।’’
इस काफिर पहलवान ने जब यह उपदेश सुना तो उसे ज्ञान हो गया। कहा, ‘‘हाय! अफसोस, मैं अबतक जुल्म के बीज बो रहा था। मैं तो तुझे कुद और समझता था। लेकिन तू तो खुदा का अन्दाज लगाने की न सिर्फ तराजू है, बल्कि उस तराजू की डंडी है। मैं उस ईश्वरीय ज्योति का दास हूं, जिससे तेरा जीवन-दीप प्रकाशित हो रहा है। इसलिए मुझे अपने मजहब का कलमा सिखा, क्योंकि तेरा पद मुझसे बहुत ऊंचा है।’’
इस पहलवान के जितने निकट संबंधी और सजातीय थे, सबने उसी वक्त हजरत अली का धर्म ग्रहण कर लिया। हजरत अली ने केवल दया की तलवार से इतने बड़े दल को अपने धर्म में दीक्षित कर लिया।
[दया की तलवार सममुच लोहे की तलवार से श्रेष्ठ है।]
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217