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जलालुद्दीन रूमी की कहानी - कांटों की झाड़ी

जलालुद्दीन रूमी की कहानी - कांटों की झाड़ी

               एक मुंह के मीठे और दिल के खोटे मनुष्य ने रास्ते के बीच में कांटों की झाड़ी उगने दी। जो पथिक उधर से निकलता, वही धिक्कार कर कहता कि इसको उखाड़ दे; लेकिन उसको वह उखाड़ता नहीं था, न उखाड़ा। इस झाड़ी की यह दशा थी कि प्रत्येक पल बढ़ती जाती थी और लोगों के पैर कांटे चुभने से लहू-लुहान हो जाते। जब हाकिम को इसकी खबर पहुंची और इस मनुष्य के पूर्ण आचरण का ज्ञान हुआ तो उसने झाड़ी को तुरन्त उखाड़ देने की आज्ञा दी। इस पर भी वह मनुष्य और जवाब दिया कि किसी फुर्सत के दिन उखाड़ डालूंगा। इस तरह बराबर टालमटोल करता रहा, यहां तक कि झाड़ी ने खूब मजबूत जड़ पकड़ ली।
एक दिन हाकिम ने कहा, ‘‘ऐ प्रतिज्ञा भंग करनेवाले, हमारी आज्ञा का पालन कर। बस अब एड़ियां न रगड़। तू जो रोज कल का वादा करता है। यह समझ कि जितना अधिक समय गुजरता जायेगा, उतना ही अधिक बुराई का वृक्ष पनपता जायेगा और उखाड़ने वला बुड्ढा और भी कमजोर होता जायेगा। पेड़ मजबूत और बड़ा होता जाता है। जल्दी कर और मौके को हाथ से न जाने दे।’’

        [मनुष्य की हर बुरी आदत कांटों की झाड़ी है। वह अनेक बार अपने आचरणों पर लज्जित होकर पश्चात्ताप करता है। वह अपनी आदतों से स्वयं भी तंग आ जाता है, फिर भी उसकी आंखें नहीं खुलतीं। दूसरों के कष्ट जो उसके ही स्वभाव के कारण हैं, अगर वह उसकी परवा नहीं करता तो न सही; लेकिन उसे अपने घाव का अनुभव तो होना ही चाहिए।]

       

रूमी की कहानियाँ

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