मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

पाँचवा भाग

मुकदमा वापस लिया गया

 

मुकदमा चला। सरकारी वकील, मजिस्ट्रेट आदि घबराये हुए थे । उन्हें सूझ नही पड़ रहा था कि किया क्या जाये । सरकारी वकील सुनवाई मुलतवी रखने की माँग कर रहा था । मै बीच मे पड़ा और बिनती कर रहा था कि सुनवाई मुलतवी रखने की कोई जरूरत नही है , क्योकि चम्पारन छोड़ने की नोटिस का अनादर करने का अपराध स्वीकार करना है । यह कह कर मै उस बहुत ही छोटे से ब्यान को पढ़ गया, जो मैने तैयार किया था । वह इस प्रकार था :

'जाब्ता फौजदारी की दफा 144 के अनुसार दी हुई आज्ञा का खुला अनादर करने का गंभीर कदम मुझे क्यो उठाना पड़ा , इस संबंध मे मै एक छोटा सा ब्यान अदालत की अनुमति से देना चाहता हूँ । मेरी नम्र सम्मति मे यह प्रश्न अनादर का नही है , बल्कि स्थानीय सरकार और मेरे बीच मतभेद का प्रश्न है । मै इस प्रदेश मे जन-सेवा और देश-सेवा के ही उद्देश्य से आया हूँ । निलहे गोरे रैयत के साथ न्याय का व्यवहार नही करते , इस कारण उनकी मदद के लिए आने का प्रबल आग्रह मुझसे किया गया । इसलिए मुझे आना पड़ा है । समूचे प्रश्न का अध्ययन किये बिना मै उनकी मदद किस प्रकार कर सकता हूँ ? इसलिए मै इस प्रश्न का अध्ययन करने आया हूँ और सम्भव हो तो सरकार और निलहो की सहायता लेकर इसका अध्ययन करना चाहता हूँ । मेरे सामने कोई दूसरा उद्देश्य नही है , और मै यह नही मान सकता कि मेरे आने से लोगो की शान्ति भंग होगी औऱ खून-खराबा होगा । मेरा दावा है कि इस विषय का मुझे अच्छा खासा अनुभव है । पर सरकार का विचार इस सम्बन्ध मे मुझसे भिन्न है । उनकी कठिनाई को मै समझता हूँ और मै यह भी स्वीकार करता हूँ कि उसे प्राप्त जानकारी पर ही विश्वास करना होता है । कानून का आदर करने वाले एक प्रजाजन के नाते तो मुझे यह आज्ञा दी गयी है उसे स्वीकार करने की स्वाभाविक इच्छा होनी चाहिये , और हुई थी । पर मुझे लगा कि वैसा करने मे जिनके लिए मै यहाँ आया हूँ उनके प्रति रहे अपने कर्तव्य की मै हत्या करूँगा । मुझे लगा है कि आज मै उनकी सेवा उनके बीच रहकर ही कर सकता हूँ । इसलिए स्वेच्छा से चम्पारन छोड़ना मेरे लिए सम्भव नही है । इस धर्म-संकट के कारण मुझे चम्पारन से हटाने की जिम्मेदारी मै सरकार पर ड़ाले बिना रह न सका ।

 

'मै इस बात को अच्छी तरह समझता हूँ कि हिन्दुस्तान के लोक-जीवन मे मुझ-जैसी प्रतिष्ठा रखने वाले आदमी को कोई कदम उठाकर उदाहरण प्रस्तुत करते समय बड़ी सावधानी रखनी चाहिये । पर मेरा ढृढ विश्वास है कि आज जिस अटपटी परिस्थिति मे हम पड़े हुए है उसमे मेरे-जैसी परिस्थितियो मे फँसे हुए स्वाभिमानी मनुष्य के सामने इसके सिवा दुसरा कोई सुरक्षित और सम्मानयुक्त मार्ग नही है कि आज्ञा का अनादर करके उसके बदले मे जो दंड प्राप्त हो , उसे चुपचाप सहन कर लिया जाय ।

 

'आप मुझे जो सजा देना चाहते है , उसे कम कराने की भावना से मै यह ब्यान नही दे रहा हूँ । मुझे तो यही जता देना है कि आज्ञा का अनादर करने मे मेरा उद्देश्य कानून द्वारा स्थापित सरकार का अपमान करना नही है , बल्कि मेरा हृदय जिस अधिक बड़े कानून को - अर्थात् अन्तरात्मा की आवाज को -- स्वीकार करता है, उसका अनुकरण करना ही मेरा उद्देश्य है ।'

अब मुकदमे की सुनवाई को मुलतवी रखने की जरूरत न रही थी, किन्तु चूंकि मजिस्ट्रेट और वकील ने इस परिणाम की आशा नही की थी , इसलिए सजा सुनाने के लिए अदालत ने केस मुलतवी रखा । मैने वाइसरॉय को सारी स्थिति तार द्वारा सूचित कर दी थी । भारत-भूषण पंडित मालवीयजी आदि को भी वस्तुस्थिति की जानकारी तार से भेज दी थी ।

सजा सुनने के लिए कोर्ट मे जाने का समय हुआ उससे कुछ पहले मेरे नाम मजिस्ट्रेट का हुक्म आया कि गवर्नर साहब की आज्ञा से मुकदमा वापस ले लिया गया है । साथ ही कलेक्टर का पत्र मिला कि मुझे जो जाँच करनी हो, मै करूँ और उसमे अधिकारियो की ओर से जो मदद आवश्यकता हो , सो माँग लूँ । ऐसे तात्कालिक और शुभ परिणाम की आशा हममे से किसी ने नही रखी थी ।

मै कलेक्टर मि. हेकाँक से मिला । मुझे वह स्वयं भला और न्याय करने मे तत्पर जान पड़ा । उसने कहा कि आपको जो कागज-पत्र या कुछ और देखना हो , सो आप माँग ले और मुझ से जब मिलना चाहे , मिल लिया करे ।

दुसरी ओर सारे हिन्दुस्तान को सत्याग्रह का अथवा कानून के सविनय भंग का पहना स्थानीय पदार्थ-पाठ मिला । अखबारो मे इसकी खूब चर्चा हुई और मेरी जाँच को अनपेक्षित रीति से प्रसिद्धि मिल गयी ।

अपनी जाँच के लिए मुझे सरकार की ओर से तटस्थता की तो आवश्यकता थी , परन्तु समाचारपत्रो की चर्चा की और उनके संवाददाताओ की आवश्यकता न थी । यही नही बल्कि उनकी आवश्यकता से अधिक टीकाओ से और जाँच की लम्बी-चौड़ी रिपोर्टो से हानि होने का भय था । इसलिए मैने खास-खास अखबारो के संपादको से प्रार्थना की थी कि वे रिपोर्टरो को भेजना का खर्च न उठाये , जिनता छापने की जरूरत होगी उतना मै स्वयं भेजता रहूँगा और उन्हें खबर देता रहूँगा ।

मै यह समझता था कि चम्पारन के निलहे खूब चिढ़े हुए है । मै यह भी समझता था कि अधिकारी भी मन मे खुश न होगे, अखबारो मे सच्ची-झूठी खबरो के छपने से वे अधिक चिढेंगे । उनकी चिढ का प्रभाव मुझ पर तो कुछ नही पड़ेगा , पर गरीब , डरपोक रैयत पर पड़े बिना न रहेगा । ऐसा होने से जो सच्ची स्थिति मै जानना चाहता हूँ , उसमे बाधा पड़ेगी । निलहो की तरफ से विषैला आन्दोलन शुरू हो चुका था । उनकी ओर से अखबारो मे मेरे और साथियो के बारे मे खूब झूठा प्रचार हुआ , किन्तु मेरे अत्यन्त सावधान रहने से और बारीक-से-बारीक बातो मे भी सत्य पर ढृढ रहने की आदत के कारण उनके तीर व्यर्थ गये ।

निलहो ने ब्रजकिशोरबाबू की अनेक प्रकार से निन्दा करने मे जरा भी कसर नही रखी । पर ज्यो-ज्यो वे निन्दा करते गये, ब्रजकिशोरबाबू की प्रतिष्ठा बढ़ती गयी ।

ऐसी नाजुक स्थिति मे मैने रिपोर्टरो को आने के लिए जरा भी प्रोत्साहित नही किया , न नेताओ को बुलाया । मालवीयजी ने मुझे कहला भेजा था कि , 'जब जरूरत समझे मुझे बुला ले । मै आने को तैयार हूँ ।' उन्हें भी मैने तकलीफ नही दी । मैने इस लड़ाई को कभी राजनीतिक रुप धारण न करने दिया । जो कुछ होता था उसकी प्रासंगिक रिपोर्ट मै मुख्य-मुख्य समाचारपत्रो को भेज दिया करता था । राजनीतिक काम करने के लिए भी जहाँ राजनीति की गुंजाइश न हो , वहाँ उसे राजनीतिक स्वरूप देने से पांड़े को दोनो दीन से जाना पड़ता है , और इस प्रकार विषय का स्थानान्तर न करने से दोनो सुधरते है । बहुत बार के अनुभव से मैने यह सब देख लिया था । चम्पारन की लड़ाई यह सिद्ध कर रही थी कि शुद्ध लोकसेवा मे प्रत्यक्ष नही तो परोक्ष रीत से राजनीति मौजूद ही रहती है ।

 

 

 

 

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