मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग पाँचवा भाग साथी
ब्रजकिशोरबाबू और राजेन्द्रबाबू की तो एक अद्वितीय जोडी थी । उन्होने अपने प्रेम से मुझे इतना पंगु बना दिया था कि उनके बिना मै एक कदम भी आगे नही जा सकता था । उनके शिष्य कहिये अथवा साथी , शंभूबाबू, अनुग्रहबाबू , धरणीबाबू और रामनवमीबाबू -- ये वकील लगभग निरन्तर मेरे साथ रहते थे । विन्ध्याबाबू और जनकधारीबाबू भी समय समय पर साथ रहते थे । यह तो बिहारियो का संघ हुआ । उनका मुख्य काम था लोगो का बयान लेना । अध्यापक कृपालानी इसमे सम्मिलित हुए बिना कैसे रह सकते थे ? स्वयं सिन्धी होते हुए भी वे बिहारी से भी बढकर बिहारी थे । मैने ऐसे सेवक कम देखे है , जिनमे वे जिस प्रान्त मे जाये उसमे पूरी तरह घुलमिल जाने की शक्ति हो और जो किसा को यह मालूम न होने दे कि वे दूसरे प्रान्त के है । इनमे कृपालानी एक है । उनका मुख्य काम द्वारपाल का था । दर्शन करनेवालो से मुझे बचा लेने मे उन्होने जीवन की सार्थकता समझ ली थी । किसी को वे विनोद करके मेरे पास आने से रोकते थे, तो किसी को अहिंसक धमकी से । रात होने पर अध्यापक का धन्धा शुरू करते और सब साथियो को हँसाते थे और कोई डरपोल पहुँच जाय तो उसे हिम्मत बँधाते थे । मौलाना मजहरुल हक ने मेरे सहायक के रूप मे अपना हक दर्ज करा रखा था और वे महीने मे एक-दो बार दर्शन दे जाते थे । उस समय के उनके ठाटबाट और दबदबे मे और आज की उनकी सादगी मे जमीन-आसमान का अन्तर है । हमारे बीच आकर वे हमसे हृदय की एकता साध जाते थे , पर अपनी साहबी के कारण बाहर के आदमी को वे हमसे अलग जैसे जान पड़ते थे । जैसे-तैसे मुझे अनुभव प्राप्त होता गया वैस-वैसे मैने देखा कि चम्पारन मे ठीक से काम करना हो तो गाँवो मे शिक्षा का प्रवेश होना चाहिये । लोगो को अज्ञान दयनीय था । गाँवो के बच्चे मारे-मारे फिरते थे अथवा माता-पिता दो या तीन पैसे की आमदनी के लिए उनसे सारे दिन नील के खेतो मे मजदूरी करवाते थे । उन दिनो वहाँ पुरूषो की मजदूरी दस पैसे से अधिक नही थी । स्त्रियो की छह पैसे और बालको की तीन पैसे थी । चार आने की मजदूरी पाने वाला किसान भाग्यशाली समझा जाता था । साथियो से सलाह करके पहले तो छह गाँवो मे बालको के लिए पाठशाला खोलने का निश्चय किया । शर्त यह थी कि उन गाँवो के मुखिया मकान और शिक्षक का भोजन व्यय दे , उसके दूसरे खर्च की व्यवस्था हम करे । यहाँ के गाँवो मे पैसे की विपुलता नही थी, पर अनाज वगैरा देने की शक्ति लोगो मे थी । इसलिए लोग कच्चा अनाज देने को तैयार हो गये थे महान प्रश्न यह था कि शिक्षक कहाँ से लाये जाये ? बिहार मे थोडा वेतन लेने वाले अथवा कुछ न लेनेवाले अच्छे शिक्षको का मिलना कठिन था । मेरी कल्पना यह थी कि साधारण शिक्षको के हाथ मे बच्चो को कभी न छोडना चाहिये । शिक्षक को अक्षर-ज्ञान चाहे थोड़ा हो , पर उसमे चरित्र बल तो होना ही चाहिये । इस काम के लिए मैने सार्वजनिक रूप से स्वयंसेवको की माँग की । उसके उत्तर मे गंगाधरराव देशपांडे ने बाबासाहब सोमण और पुंडलीक को भेजा । बम्बई से अवन्तिकाबाई गोखले आयी । दक्षिण से आनन्दीबाई आयी । मैने छोटेलाल, सुरेन्द्रनाथ तथा अपने लड़के देवदास को बुला लिया । इसी बीच महादेव देसाई और महादेव देसाई और नरहरि परीख मुझे मिल गये थे । महादेव देसाई की पत्नी दुर्गाबहन और नरहरि परीख की पत्नी मणिबहन भी आयी । मैने कस्तूरबाई को भी बुला लिया था । शिक्षको और शिक्षिकाओ का इतना संघ काफी था । श्रीमति अवन्तिकाबाई और आनन्दीबाई की गिनती तो शिक्षितो मे हो सकती थी, पर मणिबहन परीख और दुर्गाबहन को सिर्फ थोडी-सी गुजराती आती थी । कस्तूरबाई की पढाई तो नही के बराबर ही थी । ये बहने हिन्दी-भाषी बच्चो को किसी प्रकार पढ़ाती ? चर्चा करके मैने बहनो को समझाया कि उन्हे बच्चो को व्याकरण नही, बल्कि रहन-सहन का तौर तरीका सिखाना है । पढना-लिखना सिखाने की अपेक्षा उन्हें स्वच्छता के नियम सिखाने है । उन्हें यह भी बताया कि हिन्दी, गुजराती, मराठी के बीच कोई बड़ा भेद नही है , और पहले दर्जे मे तो मुश्किल से अंक लिखना सिखाना है । अतएव उन्हें कोई कठिनाई होगी ही नही । परिणाम यह निकला कि बहनो की कक्षाये बहुत अच्छी तरह चली । बहनो मे आत्मविश्वास उत्पन्न हो गया और उन्हें अपने काम मे रस भी आने लगा । अवन्तिकाबाई की पाठशाला आदर्श पाठशाला बन गयी । उन्होने अपनी पाठशाला मे प्राण फूँक दिये । इस बहनो के द्वारा गाँवो के स्त्री-समाज मे भी हमारा प्रवेश हो सका था । पर मुझे पढ़ाई की व्यवस्था करके ही रुकना नही था । गाँवो मे गंदगी की कोई सीमा न थी । गलियो मे कचरा, कुओं के आसपास कीचड़ और बदबू, आँगन इतने गंदे कि देखे न जा सके । बड़ो को स्वच्छता की शिक्षा की जरूरत थी । चम्पारन के लोग रोगो से पीडित देखे जाते थे । जितना हो सके उतना सफाई का काम करके लोगो के जीवन के प्रत्येक विभाग मे प्रवेश करने की हमारी वृत्ति थी । इस काम मे डॉक्टरो की सहायता की जरूरत थी । अतएव मैने गोखले की सोसायटी से डॉ. देव की माँग की । उनके साथ मेरी स्नेहगांठ तो बंध ही चुकी थी । छह महीनो के लिए उनकी सेवा का लाभ मिला । उनकी देखरेख मे शिक्षको और शिक्षिकाओ को काम करना था ।
सबको यह समझा दिया गया कि कोई भी निलहो के विरुद्ध की जाने वाली शिकायतो मे न पड़े । राजनीति को न छुए । शिकायत करनेवालो को मेरे पास भेज दे । कोई अपने क्षेत्र से बाहर एक कदम भी न रखे । चम्पारन के इन साथियो का नियम-पालन अद्भूत था । मुझे ऐसा कोई अवसर याद नही आता , जब किसी ने दी हुई सूचनाओ का उल्लंघन किया हो ।
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