मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग चौथा भाग कुली-लोकेशन अर्थात् भंगी-बस्ती ?
हिन्दुस्तान मे हम अपनी बड़ी से बड़ी सेवा करने वाले ढेड़, भंगी इत्यादि को , जिन्हें हम अस्पृश्य मानते हैं , गाँव से बाहर अलग रखते हैं । गुजराती मे उनकी बस्ती को 'ढेड़वाड़ा' कहते हैं और इस नाम का उच्चारण करने में लोगो को नफरत होती हैं । इसी प्रकार यूरोप के ईसाई समाज मे एक जमाना ऐसा था, जब यहूदी लोग अस्पृश्य माने जाते थे और उनके लिए जो ढ़ेड़वाड़ा बसाया जाता था उसे 'घेटो' कहते थे । यह नाम असगुनिया माना जाता था । इसी तरह दक्षिण अफ्रीका मे हम हिन्दुस्तानी लोग ढ़ेड़ बन गये हैं । एंड्रूज के आत्म बलिदान से और शास्त्री की जादू की छड़ी से हमारी शुद्धि होगी और फलतः हम ढ़ेड़ न रहकर सभ्य माने जायेंगे या नही, सो आगे देखना होगा । हिन्दूओं की भाँति यहूदियों ने अपने को ईश्वर का प्रीतिपात्र मानकर जो अपराध किया था, उसका दंड़ उन्हे विचित्र और अनुचित रीति से प्राप्त हुआ था । लगभग उसी प्रकार हिन्दुओं ने भी अपने को सुसंस्कृत अथवा आर्य मानकर अपने ही एक अंग को प्राकृत , अनार्य अथवा ढ़ेड़ माना हैं । अपने इस पाप का फल वे विचित्र रीति से और अनुचित ढंग से दक्षिण अफ्रीका आदि उपनिवेशों मे भोग रहे है और मेरी यह धारणा है कि उसमे उनके पड़ोसी मुसलमान और पारसी भी , जो उन्हीं के रंग के और देश के हैं, फँस गये हैं । जोहानिस्बर्ग के कुली -लोकेशन को इस प्रकरण का विषय बनाने का हेतु अब पाठकों की समझ मे आ गया होगा । दक्षिण अफ्रीका में हम हिन्दुस्तानी 'कुली' के नाम से मशहूर हो गये हैं । यहाँ तो हम 'कुली' शब्द का अर्थ केवल मजदूर करते हैं । लेकिन दक्षिण अफ्रीका मे इस शब्द को जो अर्थ होता था, उसे 'ढ़ेड़', 'पंचम' आदि तिरस्कारवाचक शब्दों द्वारा ही सूचित किया जा सकता हैं । वहाँ 'कुलियों' के रहने के लिए जो अलग जगह रखी जाती हैं, वह 'कुली लोकेशन' कही जाती हैं । जोहानिस्बर्ग मे ऐसा एक 'लोकेशन' था । दूसरी सब जगहों मे जो 'लोकेशन' बसाये गये थे और जो आज भी मौजूद है , उनमें हिन्दुस्तानियों को कोई मालिकी हक नही होता । पर इस जोहानिस्बर्ग वाले लोकेशन मे जमीन 99 वर्ष के लिए पट्टे पर दी गयी थी । इसमे हिन्दुस्तानियों की आबादी अत्यन्त घनी थी । बस्ती बढ़ती थी, पर लोकेशन बढ़ नही सकता था । उसके पाखाने जैसे-तैसे साफ अवश्य होते थे , पर इसके सिवा म्युनिसिपैलिटी की ओर से और कोई विशेष देखरेख नही होती थी । वहाँ सड़क और रोशनी की व्यवस्था तो होती ही कैसे? इस प्रकार जहाँ लोगो के शौचादि से संबंध रखने वाली व्यवस्था की भी किसी को चिन्ता न थी , वहाँ सफाई भला कैसे होती ? जो हिन्दुस्तानी वहाँ बसे हुए थे, वे शहर की सफाई और आरोग्य इत्यादि के नियम जानने वाले सुशिक्षित और आदर्श हिन्दुस्तानी नही थे कि उन्हें म्युनिसिपैलिटी की मदद की अथवा उनकी रहन-सहन पर म्युनिसिपैलिटी की देख-रेख की आवश्यकता न हो । यदि वहाँ जगंल मे मंगल कर सकने वाले, धूल मे से धान पैदा करने की शक्तिवाले हिन्दुस्तानी जाकर बसे होते , तो उनका इतिहास सर्वथा भिन्न होता । ऐसे लोग बड़ी संख्या में दुनिया के किसी भी भाग मे परदेश जाकर बसते पाये नहीं जाते । साधारणतः लोग धन और धंधे के लिए परदेश जाते हैं । पर हिन्दुस्तान से मुख्यतः बड़ी संख्या मे अपढ़, गरीब और दीन दुःखी मजदूर ही गये थे । उन्हें तो पग पग पर रक्षा की आवश्यकता थी । उनके पीछे-पीछे व्यापारी और दूसरे स्वतंत्र हिन्दुस्तानी जो गये, वे तो मुट्ठी भर ही थे । इस प्रकार सफाई की रक्षा करने वाले विभाग की अक्षम्य असावधानी के कारण और हिन्दुस्तानी बाशिन्दों के अज्ञान के कारण आरोग्य की दृष्टि से लोकेशन की स्थिति बेशक खराब थी । म्युनिसिपैलिटी ने उसे सुधारने की थोड़ी भी उचित कोशिश नही की । परन्तु अपने ही दोष से उत्पन्न हुई खराबी को निमित्त बनाकर सफाई -विभाग ने उक्त लोकेशन को नष्ट करने का निश्चय किया और उस जमीन पर कब्जा करने का अधिकार वहाँ की धारासभा से प्राप्त किया । जिस समय मैं जोहानिस्बर्ग मे जाकर बसा था, उस समय वहाँ की हालत ऐसी थी । वहाँ रहने वाले जमीन के मालिक थे, इसलिए उनको कुछ न कुछ नुकसानी की रकम निश्चित करने के लिए एक खास अदालत कायम हुई थी । म्युनिसिपैलिटी जो रकम देने को तैयार हो उसे मकान मालिक स्वीकार न करता तो उक्त अदालक द्वारा ठहराई हुई रकम उसे मिलती थी । यदि म्युनिसिपैलिटी की द्वारा सूचित रकम से अधिक रकम देने का निश्चय अदालत करती तो मकान मालिक के वकील का खर्च नियम के अनुसार म्युनिसिपैलिटी को चुकाना होता था । इनमे से अधिकांश दावो मे मकान मालिको ने मुझे अपना वकील किया था । मुझे इस काम से धन पैदा करने की इच्छा नही थी । मैने उनसे कह दिया था, 'अगर आप जीतेंगे तो म्युनिसिपैलिटी की तरफ से जो भी खर्च मिलेगा उससे मैं संतोष कर लूँगा । आप हारे चाहे जीते, यदि मुझे हर पट्टे के पीछे दस पौंड आप मुझे देगे तो काफी होगा ।' मैने उन्हे बताया कि इसमें से भी आधी रकम गरीबो के लिए अस्पताल बनाने या ऐसे ही किसी सार्वजनिक काम में खर्च करने के लिए अलग रखने का मेरा इरादा हैं । स्वभावतः यह सुनकर सब बहुत खुश हुए । लगभग सत्तर मामलों मेंसे एक मे हार हुई । अतएव मेरी फीस की रकम काफी बढ़ गयी । पर उसी समय 'इंडियन ओपीनियन' की माँग मेरे सिर पर लटक रही थी । अतएव लगभग सोलह सौ पौड़ का चेक उसमे चला गया , ऐसा मेरा ख्याल है । इन दावो मे मेरी मान्यता के अनुसार मैने अच्छी मेहनत की थी । मुवक्किलो की तो मेरे पास भीड़ ही लगी रहती थी । इनमे से प्रायः सभी उत्तर हिन्दुस्तान के बिहार इत्यादि प्रदेशों से और दक्षिण के तामिल , तेलुगु प्रदेश से पहले इकरार नामे के अनुसार आये थे और बाद में मुक्त होने पर स्वतंत्र धंधा करने लगे थे । इन लोगो ने अपने खास दुःखो को मिटाने के लिए स्वतंत्र हिन्दुस्तानी व्यापारी वर्ग के मंड़ल से भिन्न एक मंड़ल की रचना की थी। उनमे कुछ बहुत शुद्ध हृदय के उदार भावनावाले चरित्रवान हिन्दुस्तानी भी थे । उनके मुखिया का नाम श्री जयरामसिंह था । और मुखिया न होते हुए भी मुखिया जैसे ही दूसरे भाई का नाम श्री बदरी था । दोनो का देहान्त हो चुका हैं । दोनो की तरफ से मुझे बहुत अधिक सहायता मिली थी । श्री बदरी से मेरा परिचय हो गया था और उन्होने सत्याग्रह मे सबसे आगे रहकर हिस्सा लिया था । इन और ऐसे अन्य भाईयों के द्वारा मैं उत्तर दक्षिण के बहुसंख्यक हिन्दुस्तानियों के निकट परिचय मे आया था और उनका वकील ही नही, बल्कि भाई बनकर रहा था तथा तीनो प्रकार के दुःखों में उनका साक्षी बना था । सेठ अब्दुल्ला ने मुझे 'गाँधी' नाम से पहचानने से इनकार कर दिया । 'साहब' तो मुझे कहता और मानता ही कौन ? उन्होंने एक अतिशय प्रिय नाम खोज लिया । वे मुझे 'भाई' कहकर पुकारने लगे । दक्षिण अफ्रीका मे अन्त तक मेरा यही नाम रहा । लेकिन जब ये गिरमिट मुक्त हिन्दुस्तानी मुझे 'भाई' कहकर पुकारते थे , तब मुझे उसमें एक खास मिठास का अनुभव होता था ।
|