मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग चौथा भाग हृदय-मन्थन
'जुलू-विद्रोह' मे मुझे बहुत से अनुभव हुए और बहुत-कुछ सोचने को मिला । बोअर-युद्ध मे मुझे लड़ाई की भयंकरता उतनी प्रतीत नही हुई थी जितनी यहाँ हुई थी । यहाँ लड़ाई नही, बल्कि मनुष्यो को शिकार हो रहा था । यह केवल मेरा ही नही , बल्कि उन कई अंग्रेजो का भी अनुभव था, जिनके साथ मेरी चर्चा होती रहती थी । सबेरे-सबेरे सेना गाँव मे जाकर मानो पटाखे छोडती हो, इस प्रकार उनकी बन्दूको की आवाज दूर रहनेवाले हम लोगो के कानो पर पड़ती थी । इन आवाजो को सुनना और इस वातावरण मे रहना मुझे बहुत मुश्किल मालूम पड़ा । लेकिन मै सब-कुछ कड़वे घूँट की तरह पी गया और मेरे हिस्से काम आया सो तो केवल जुलू लोगो की सेवा का ही आया । मै यह समझ गया कि अगर हम स्वयंसेवक दल मे सम्मिलित न हुए होते , तो दूसरा कोई यह सेवा न करता । इस विचार से मैने अपनी अन्तरात्मा को शान्त किया । यहाँ बस्ती बहुत कम थी । पहाड़ो और खाइयो मे भले , सादे और जंगली माने जाने वाले जुलू लोगो के धासफूस के झोपड़ो को छोड़कर और कुछ न था । इस कारण दृश्य भव्य मालूम होता था। जब इस निर्जन प्रदेश मे हम किसी घायल को लेकर अथवा यो ही मीलो पैदल जाते थे, तब मै सोच मे डूब जाता था । यहाँ ब्रह्मचर्य के बारे मे मेरे विचार परिपक्व हुए । मैने अपने साथियो से भी इसकी थोडी चर्चा की । मुझे अभी इस बात का साक्षात्कार तो नही हुआ था कि ईश्वर दर्शन के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य वस्तु है । किन्तु मै यह स्पष्ट देख सका था कि सेवा के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक है । मुझे लगा कि इस प्रकार की सेवा तो मेरे हिस्से मे अधिकाधिक आती ही रहेगी और यदि मै भोग-विलास मे , सन्तानोत्पत्ति मे और संतति के पालन-पोषण मे लगा रहा , तो मुझसे सम्पूर्ण सेवा नही हो सकती, मै दो घोड़ो पर सवारी नही कर सकता । यदि पत्नी सगर्भा हो तो मै निश्चिन्त भाव से इस सेवा मे प्रवृत हो ही नही सकता । ब्रह्मचर्य का पालन किये बिना परिवार की वृद्धि करते रहना समाज के अभ्युदय के लिए किये जानेवाले मनुष्य के प्रयत्न का विरोध करनेवाली वस्तु बन जाती है । विवाहित होते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन किया जाय तो परिवार की सेवा समाज-सेवा की विरोधी न बने । मै इस प्रकार के विचार-चक्र मे फँस गया और ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के लिए थोडा अधीर भी हो उठा । इन विचारो से मुझे एक प्रकार का आनन्द हुआ और मेरा उत्साह बढ़ा । कल्पना ने सेवा के क्षेत्र को बहुत विशाल बना दिया । मै मन-ही-मन इन विचारो को पक्का कर रहा था और शरीर को कस रहा था कि इतने मे कोई यह अफवाह लाया कि विद्रोह शान्त होने जा रहा है और अब हमे छुट्टी मिल जायेगी । दूसरे दिन हमे घर जाने की इजाजत मिली और बाद मे कुछ दिनो के अन्दर सब अपने अपने घर पहुँच गये । इसके कुछ ही दिनो बाद गवर्नर ने उक्त सेवा के लिए मेरे नाम आभार प्रदर्शन का एक विशेष पत्र भेजा । फीनिक्स पहुँचकर मैने ब्रह्मचर्य की बात बहुत रस-पूर्वक छगनलाल, मगनलाल , वेस्ट इत्यादि के सामने रखी । सबको बात पसन्द आयी । सबने उसकी आवश्यकता स्वीकार की । सबने यह भी अनुभव किया कि ब्रह्मचर्य का पालन बहुत ही कठिन है । कइयो ने प्रयत्न करने का साहस भी किया और मेरा ख्याल है कि कुछ को उसमे सफलता भी मिली । मैने व्रत ले लिया कि अबसे आगे जीवनभर ब्रह्मचर्य का पालन करुँगा । उस समय मै इस व्रत के महत्त्व और इसकी कठिनाइयो को पूरी तरह समझ न सका था । इस की कठिनाइयो का अनुभव तो मै आज भी करता रहता हूँ । इसके महत्त्व को मै दिन दिन अधिकाधिक समझता जाता हूँ । ब्रह्मचर्य-रहित जीवन मुझे शुष्क और पशुओ जैसा प्रतीत होता है । स्वभाव से निरंकुश है । मनुष्य का मनुष्यत्व स्वेच्छा से अंकुश मे रहने मे है । धर्मग्रंथो मे पायी जानेवाली ब्रह्मचर्य का प्रशंसा मे पहले मुझे अतिशयोक्ति मालूम होती थी , उसके बदले अब दिन दिन यह अधिक स्पष्ट होता जाता है कि वह उचित है और अनुभव-पूर्वक लिखी गयी है । जिस ब्रह्मचर्य के ऐसे परिणाम आ सकते है, वह सरल नही हो सकता, वह केवल शारीरिक भी नही हो सकता । शारीरिक अंकुश से ब्रह्मचर्य का आरंभ होता है । परन्तु शुद्ध ब्रह्मचर्य मे विचार की मलिनता भी न होनी चाहिये । संपूर्ण ब्रह्मचारी को तो स्वप्न मे भी विकारी विचारी नही आते । और , जब तक विकारयुक्त स्वप्न आते रहते है , तब तक यह समझना चाहिये कि ब्रह्मचर्य बहुत अपूर्ण है । मुझे कायिक ब्रह्मचर्य के पालन मे भी महान कष्ट उठाना सकता है कि मै इसके विषय मे निर्भय बना हूँ । लेकिन अपने विचारो पर मुझे जो जय प्राप्त करनी चाहिये , वह प्राप्त नही हो सकी है । मुझे नही लगता कि मेरे प्रयत्न मे न्यूनता रहती है । लेकिन मै अभी तक यह समझ नही सका हूँ कि हम जिन विचारो को नही चाहते , वे हम पर कहाँ से और किस प्रकार हमला करते है । मुझे इस विषय मे सन्देह नही है कि मनुष्य के पास विचारो को रोकने की चाबी है । लेकिन अभी तो मै इस निर्यण पर पहुँचा हूँ कि यह चाबी भी हरएक को अपने लिए शुद खोज लेनी है । महापुरूष हमारे लिए जो अनुभव छोड़ गये है, वे मार्ग-दर्शक है । वे सम्पूर्ण नही है । सम्पूर्णता तो केवल प्रभु-प्रसादी है । और इसी हेतु से भक्तजन अपनी तपश्चर्या द्वारा पुनीत किये हुए औऱ हमे पावन करने वाले रामानामादि मंत्र छोड़ गये है । संपूर्ण ईश्वरार्पण के बिना विचारो पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त हो ही नही सकती । यह वचन मैने सब धर्मग्रंथो मे पढा है और इसकी सचाई का अनुभव मै ब्रह्मचर्य के सूक्ष्मतम पालन के अपने इस प्रयत्न के विषय मे कर रहा हूँ । पर मेरे महान प्रयत्न और संघर्ष का थोड़ा बहुत इतिहास अगले प्रकरणो मे आने ही वाला है । इस प्रकरण के अन्त मे तो मै यही कर दूँ कि अपने उत्साह के कारण मुझे आरम्भ मे को व्रत का पालन सरल प्रतीत हुआ । व्रत लेते ही मैने एक परिवर्तन कर डाला । पत्नी के साथ एक शय्या का अथवा एकान्त को मैने त्याग किया । इस प्रकार जिस ब्रह्मचर्य का पालन मै इच्छा या अनिच्छा से सन् 1900 से करता आ रहा था, व्रत के रूप मे उसका आरम्भ 1906 के मध्य से हुआ ।
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