मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग चौथा भाग सत्याग्रह की उत्पत्ति
यों एक प्रकार की जो आत्मशुद्धि मैने की वह मानो सत्याग्रह के लिए ही हुए हो , ऐसी एक घटना जोहानिस्बर्ग में मेरे लिए तैयार हो रही थी। आज मै देख रहा हूँ कि ब्रह्मचर्य का व्रत लेने तक की मेरे जीवन की सभी मुख्य घटनाये मुझे छिपे तौर पर उसी के लिए तैयार कर रही थी । 'सत्याग्रह' शब्द की उत्पत्ति के पहले उस वस्तु की उत्पत्ति हुई । उत्पत्ति के समय तो मै स्वयं भी उसके स्वरूप को पहचान न सका था । सब कोई उसे गुजराती मे 'पैसिव रेजिस्टेन्स' ते अंग्रेजी नाम से पहचानने लगे । जब गोरो की एक सभा मे मैने देखा कि 'पैसिव रेजिस्टेन्स' संकुचित अर्थ किया जाता है , उसे कमजोरो का ही हथियार माना जाता है, उसमे द्वेष हो सकता है और उसका अन्तिम सवरुप हिंसा मे प्रकट हो सकता है, तब मुझे उसका विरोध करना पडा और हिन्दुस्तानियो को लड़ाई का सच्चा स्वरुप समझाना पड़ा । और तब हिन्दुस्तानियो के लिए अपनी लड़ाई का परिचय देने के लिए नये शब्द की योजना करना आवश्यक हो गया । पर मुझे वैसा स्वतंत्र शब्द किसी तरह सूझ नही रहा था । अतएव उसके लिए नाममात्र का इनाम रखकर मैने 'इंडियन ओपीयियन' के पाठको मे प्रतियोगिता करवायी । इस प्रतियोगिता के परिणाम स्वरुप मगललाल गाँधी ने सत् + आग्रह की संधि करके 'सदाग्रह' शब्द बनाकर भेजा । इनाम उन्हे ही मिला । पर 'सदाग्रह' शब्द को अधिक स्पष्ट करने के विचार से मैने बीच मे 'य' अक्षर और बढाकर 'सत्याग्रह' शब्द बनाया और गुजराती मे यह लड़ाई इस नाम से पहचानी जाने लगी । कहा जा सकता है कि इस लड़ाई के इतिहास दक्षिण अफ्रीका के मेरे जीवन का और विशेषकर मेरे सत्य के प्रयोगो का इतिहास है । इस इतिहास का अधिकांश मैने यरवड़ा जेल मे लिख डाला था और बाकी बाहर आने के बाद पूरा किया । वह सब 'नवजीवन' मे छप चुका है और बाद मे 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' ( 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' का हिन्दी अनुवाद नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित हो चुका है । ) के नाम से पुस्तक रूप मे भी प्रकाशित हो चुका है । उसका अंग्रेजी अनुवाद श्री वालजी गोविन्द जी देसाई 'करंट थॉट' के लिए कर रहे है । पर अब मै उसे शीध्र ही अंग्रेजी मे पुस्तकाकार मे प्रकाशित करने की व्यवस्था कर रहा हूँ , जिससे दक्षिण अफ्रीका के मेरे बड़े से बड़े प्रयोगो को जानने के इच्छुक सब लोग उन्हें जान समझ सके । जिन गुजराती पाठको ने 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' न पढा हो, उन्हे मेरी सलाह है कि वे उसे पढ ले । मै चाहता हू कि अब से आगे के कुछ प्रकरणो मे उक्त इतिहास मे दिये गये मुख्य कथा भाग को छोड़कर दक्षिण अफ्रीका के मेरे जीवन के जो थोड़े व्यक्तिगत प्रसंग उसमे देने रह गये है उन्हीं की चर्चा करूँ । और इनके समाप्त होने पर मै तुरन्त ही पाठको को हिन्दुस्तान के प्रयोगो का परिचय देना चाहता हूँ । अतएव जो पाठक इन प्रयोगो के प्रसंगो के क्रम को अविच्छिन्न रखना चाहते है, उनके लिए 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' के उक्त प्रकरण अब अपने सामने रखना जरूरी है ।
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