मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

पहला भाग

हाईस्कूल में

 

मैं ऊपर लिख चुका हूँ कि ब्याह के समय मैं हाईस्कूल में पढ़ता था । उस समय हम तीनों भाई एक ही स्कूल में पढ़ते थे । जेठे भाई ऊपर के दर्जे में थे और जिन भाई को ब्याह के साथ मेरा ब्याह हुआ था, वे मुझसे एक दर्जा आगे थे । ब्याह का परिणाम यह हुआ कि हम दो भाईयों का एक वर्ष बेकार गया । मेरे भाई के लिए तो परिणाम इससे भी बुरा रहा । ब्याह के बाद वे स्कूल पढ़ ही न सके । कितने नौजवानों को ऐसे अनिष्ट परिणाम का सामना करना पड़ता होगा, भगवान ही जाने ! विद्याभ्यास और विवाह दोनों एक साथ तो हिन्दू समाज में ही चल सकते हैं ।

मेरी पढ़ाई चलती रही । हाईस्कूल में मेरी गिनती मन्दबुद्धि विद्यार्थियों में नहीं थी। शिक्षकों का प्रेम मैं हमेशा ही पा सका था । हर साल माता- पिता के नाम स्कूल में विद्यार्थी की पढ़ाई और उसके आचरण के संबंध में प्रमाणपत्र भेजे जाते थे । उनमें मेरे आचरण या अभ्यास के खराब होने की टीका कभी नहीं हुई । दूसरी कक्षा के बाद मुझे इनाम भी मिसे और पाँचवीं तथा छठी कक्षा में क्रमशः प्रतिमास चार और दस रुपयों की छात्रवृत्ति भी मिली थी । इसमें मेरी होशियारी की अपेक्षा भाग्य का अंश अधिक था । ये छात्रवृत्तियाँ सब विद्यार्थियों के लिए नहीं थी, बल्कि सोरठवासियों में से सर्वप्रथम आनेवालों के लिए थी । चालिस-पचास विद्यार्थियों की कक्षा में उस समय सोरठ प्रदेश के विद्यार्थी कितने हो सकते थे ।

मेरा अपना ख्याल हैं कि मुझे अपनी होशियारी का कोई गर्व नहीं था । पुरस्कार या छात्रवृत्ति मिलने पर मुझे आश्चर्य होता था । पर अपने आचरण के विषय में मैं बहुत सजग था । आचरण में दोष आने पर मुझे रुलाई आ ही जाती थी । मेरे हाथों कोई भी ऐसा काम बने, जिससे शिक्षक को मुझे डाँटना पड़े अथवा शिक्षकों का ख्याल बने तो वह मेरे लिए असह्य हो जाता था । मुझे याद है कि एक बार मुझे मार खानी पड़ी थी । मार का दुःख नहीं था, पर मैं दण्ड का पात्र माना गया, इसका मुझे बड़ा दुःख रहा । मैं खूब रोया । यह प्रसंग पहली या दूसरी कक्षा का हैं । दुसरा एक प्रसंग सातवीं कक्षा का हैं । उस समय दोराबजी एदलजी गीमी हेड-मास्टर थे । वे विद्यार्थी प्रेमी थे, क्योंकि वे नियमों का पालन करवाते थे, व्यवस्थित रीति से काम लेते और अच्छी तरह पढ़ाते थे । उन्होंने उच्च कक्षा के विद्यार्थियों के लिए कसरत-क्रिकेट अनिवार्य कर दिये थे । मुझे इनसे अरुचि थी । इनके अनिवार्य बनने से पहले मैं कभी कसरत, क्रिकेट या फुटबाल मे गया ही न था । न जाने का मेरा शरमीला स्वभाव ही एक मात्र कारण था । अब मैं देखता हूँ कि वह मेरी अरुचि मेरी भूल थी । उस समय मेरा यह गलत ख्याल बना रहा कि शिक्षा के साथ कसरत का कोई सम्बन्ध नहीं हैं । बाद में मैं समझा कि विद्याभ्यास में व्यायाम का, अर्थात् शारीरिक शिक्षा का, मानसिक शिक्षा के समान ही स्थान होना चाहिये ।

फिर भी मुझे कहना चाहिये कि कसरत में न जाने से मुझे नुकसान नहीं हुआ । उसका कारण यह रहा कि मैने पुस्तकों में खुली हवा में घुमने जाने की सलाह पढ़ी थी और वह मुझे रुची थी । इसके कारण हाईस्कूल की उच्च कक्षा से ही मुझे हवाखोरी की आदत पड़ गयी थी । वह अन्त तक बनी रही । टहलना भी व्यायाम तो ही हैं ही, इससे मेरा शरीर अपेक्षाकृत सुगठित बना ।

अरुचि का दूसरा कारण था, पिताजी की सेवा करने की तीव्र इच्छा । स्कूल की छुट्टी होते ही मैं सीधा घर पहुँचता और सेवा मे लग जाता । जब कसरत अनिवार्य हुई , तो इस सेवा में बाधा पड़ी । मैंने विनती की कि पिताजी की सेवा के लिए कसरत से छुट्टी दी जाय । गीमी साहब छुट्टी क्यो देने लगे ? एक शनिवार के दिन सुबह का स्कूल था । शाम को चार बजे कसरत के लिए जाना था । मेरे पास घड़ी नहीं थी । बादलों से धोखा खा गया । जब पहुँचा तो सब जा चुके थे । दूसरे दिन गीमी साहब ने हाजिरी देखी, तो मैं गैर-हाजिर पाया गया । मुझसे कारण पूछा गया । मैंने सही-सही कारण बता दिया उन्होंने उसे सच नहीं माना और मुझ पर एक या दो आने ( ठीक रकम का स्मरण नहीं हैं ) का जुर्माना किया । मुझे बहुत दुःख हुआ । कैसे सिद्ध करुँ कि मैं झूठा नहीं हूँ । मन मसोसकर रह गया । रोया । समझा कि सच बोलने वालो को गाफिल भी नहीं रहना चाहिये । अपनी पढ़ाई के समय में इस तरह की मेरी यह पहली और आखिरी गफलत थी । मुझे धुंधली सी याद हैं कि मैं आखिर यह जुर्माना माफ करा सका था ।

मैंने कसरत से तो मुक्ति कर ही ली । पिताजी ने हेडमास्टर को पत्र लिखा कि स्कूल के बाद वे मेरी उपस्थिति का उपयोग अपनी सेवा के लिए करना चाहते हैं । इस कारण मुझे मुक्ति मिल गयी ।

व्यायाम के बदले मैंने टहलने का सिलसिला रखा, इसलिए शरीर को व्यायाम न देने की गलती के लिए तो शायद मुझे सजा नहीं भोगनी पड़ी, पर दुसरी गलती की सजा मैं आज तक भोग रहा हूँ । मैं नही जानता कि पढाई मे सुन्दर लेखन आवश्यक नहीं हैं, यह गलत ख्याल मुझे कैसे हो गया था । पर ठेठ विलायत जाने तक यह बना रहा । बाद में, और खास करके, जब मैंने वकीलों के तथा दक्षिण अफ्रीका में जन्मे और पढ़े-लिखे नवयुवकों के मोती के दानों- जैसे अक्षर देखे तो मैं शरमाया और पछताया । मैंने अनुभव किया कि खराब अक्षर अधूरी शिक्षा की निशानी मानी जानी चाहिये । बाद मे मैंने अक्षर सुधारने का प्रयत्न किया, पर पके घड़े पर कही गला जुड़ता हैं ? जवानी में मैने जिसकी उपेक्षा की, उसे आज तक नहीं कर सका । हरएक नवयुवक और नवयुवती मेरे उदाहरण से सबक ले और समझे कि अच्छे विद्या का आवश्यक अंग हैं । अच्छे अक्षर सीखने के लिए चित्रकला आवश्यक हैं । मेरी तो यह राय बनी हैं कि बालको को चित्रकला पहले सिखानी चाहिये । जिस तरह पक्षियों, वस्तुओं आदि को देखकर बालक उन्हें याद रखता है और आसानी से उन्हें पहचानता हैं, उसी तरह अक्षर पहचानना सीखे और जब चित्रकला सीखकर चित्र आदि बनाने लगे तभी अक्षर लिखना सीखें, तो उसके अक्षर छपे के अक्षरों के समान सुन्दर होंगे ।

इस समय के विद्याभ्यास के दूसरे दो संस्मरण उल्लेखनीय है । ब्याह के कारण जो एक साल नष्ट हुआ, उसे बचा लेने की बात दूसरी कक्षा के शिक्षक ने मेरे सामने रखी थी। उन दिनों परिश्रमी विद्यार्थो को इसके लिए अनुमति मिलती थी । इस कारण तीसरी कक्षा मे छह महीने रहा और गरमी की छुट्टियो से पहले होनेवाली परीक्षा के बाद मुझे चौथी कक्षा मे बैठाया गया । इस कक्षा से थोड़ी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से होनी थी । मेरी समझ में कुछ न आता था । भूमिति भी चौथी कक्षा से शुरु होती थी । मै उसमें पिछड़ा हुआ था ही, तिस पर मैं उसे बिल्कुल समझ नहीं पाता था । भूमिति के शिक्षक अच्छी तरह समझाकर पढ़ाते थे, पर मैं कुछ समझ ही न पाता था । मै अकसर निराश हो जाता था । कभी-कभी यह भी सोचता कि एक साल में दो कक्षाये करने का विचार छोड़कर मैं तीसरी कक्षा मे लौट जाऊँ । पर ऐसा करने में मेरी लाज जाती, और जिन शिक्षक ने मेरी लगन पर भरोसा करके मुझे चढाने की सिफारिश की थी उनकी भी लाज जाती । इस भय से नीचे जाने का विचार तो छोड़ ही दिया । जब प्रयत्न करते करते मैं युक्लिड के तेरहवें प्रमेय तक पहुँचा, तो अचानक मुझे बोध हुआ कि भूमिति तो सरल से सरल विषय हैं । जिसमें केवल बुद्धि का सीधा और सरल प्रयोग ही करना हैं, उसमें कठिनाई क्या हैं ? उसके बाद तो भूमिति मेरे लिए सदा ही सरल और सरस विषय बना रहा ।

भूमिति की अपेक्षा संस्कृत ने मुझे अधिक परेशान किया । भूमिति मे रटने की कोई बात थी ही नही, जब कि मेरी दृष्टि से संस्कृत में तो सब रटना ही होता था । यह विषय भी चौथी कक्षा में शुरु हुआ था । छठी कक्षा में मैं हारा । संस्कृत के शिक्षक बहुत कड़े मिजाज के थे । विद्यार्थियों को अधिक सिखाने का लोभ रखते थे । संस्कृत वर्ग और फारसी वर्ग के बीच एक प्रकार की होड़ रहती थी । फारसी सिखाने वाले मौलवी नरम मिजाज के थे । विद्यार्थी आपस में बात करते कि फारसी तो बहुत आसान हैं और फारसी सिक्षक बहुत भले हैं । विद्यार्थी जितना काम करते हैं , उतने से वे संतोष कर लेते हैं । मैं भी आसान होने की बात सुनकर ललचाया और एक दिन फारसी वर्ग में जाकर बैठा । संस्कृत शिक्षक को दुःख हुआ । उन्होंने मुझे बुलाया और कहा: "यह तो समझ कि तू किनका लड़का हैं । क्या तू अपने धर्म की भाषा नहीं सीखेगा ? तुझे जो कठिनाई हो सो मुझे बता मैं तो सब विद्यार्थियों को बढ़िया संस्कृत सिखाना चाहता हूँ । आगे चल कर उसमे रस के घूंट पीने को मिलेंगे। तुझे यो तो हारना नहीं चाहिये । तू फिर से मेरे वर्ग में बैठ ।" मैं शरमाया । शिक्षक के प्रेम की अवमानना न कर सका । आज मेरी आत्मा कृष्णशंकर मास्टर का उपकार मानती हैं । क्योंकि जितनी संस्कृत मैं उस समय सीखा उतनी भी न सीखा होता, तो आज संस्कृत शास्त्रों मैं जितना रस ले सकता हूँ उतना न ले पाता । मुझे तो इस बात का पश्चाताप होता हैं कि मैं अधिक संस्कृत न सीख सका । क्योंकि बाद में मैं समझा कि किसी भी हिन्दू बालक को संस्कृत का अच्छा अभ्यास किये बिना रहना ही न चाहिये ।

 

अब तो मैं यह मानता हूँ कि भारतवर्ष की उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में मातृभाषा के अतिरिक्त हिन्दी, संस्कृत , फारसी, अरबी और अंग्रेजी का स्थान होना चाहिये । भाषा की इस संख्या से किसी को डरना नहीं चाहिये । भाषा पद्धतिपूर्वक सिखाई जाये और सब विषयों को अंग्रेजी के माध्यम से सीखने-सोचने का बोझ हम पर न हो, तो ऊपर की भाषाये सीखना न सिर्फ बोझरुप न होगा, बल्कि उसमें बहुत ही आनन्द आयेगा । और जो व्यक्ति एक भाषा को शास्त्रीय पद्धति से सीख लेता हैं, उसके लिए दूसरी का ज्ञान सुलभ हो जाता हैं । असल में तो हिन्दी, गुजराती, संस्कृत एक भाषा मानी जा सकती हैं । इसी तरह फारसी और अरबी एक मानी जायें । यद्यपि फारसी और संस्कृत से मिलती-जुलती हैं और अरबी हिंब्रू से मेल हैं, फिर भी दोनों का विकास इस्लाम के प्रकट होने के बाद हुआ हैं, इसलिए दोंनो के बीच निकट का संबन्ध हैं । उर्दू को मैने अलग भाषा नहीं माना हैं, क्योंकि उसके व्याकरण का समावेश हिन्दी में हो जाता हैं । उसके शब्द फारसी और अरबी ही हैं । उँचे दर्जे की उर्दू जानने वाले के लिए अरबी और फारसी का ज्ञान जरुरी हैं, जैसे उच्च प्रकार की गुजराती, हिन्दी, बंगला, मराठी जानने वाले के लिए संस्कृत जानना आवश्यक हैं ।

 

 

 

 

top