मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग पहला भाग दुःखद प्रसंग - 1
मैं कह चुका हूँ कि हाईस्कूल में मेरे थोड़े ही विश्वासपात्र मित्र थे । कहा जा सकता हैं कि ऐसी मित्रता रखने वाले दो मित्र अलग-अलग समय में रहे। एक का संबन्ध लम्बे समय तक नहीं टीका, यद्यपि मैंने मित्र को छोड़ा नही था । मैंने दूसरी सोहब्बत की, इसलिए पहले ने मुझे छोड़ दिया । दूसरी सोहब्बत मेरे जीवन का एक दुःखद प्रकरण हैं । यह सोहब्बत बहुत वर्षो तक रही । इस सोहब्बत को निभाने में मेरी दृष्टि सुधारक की थी । इन भाई की पहली मित्रता मेरे मझले भाई के साथ थी । वे मेरे भाई की कक्षा में थे । मैं देख सका था कि उनमें कई दोष हैं । पर मैंने उन्हें वफादार मान लिया था । मेरी माताजी, मेरे जेठे भाई और मेरी धर्मपत्नी तीनों को यह सोहब्बत कड़वी लगती थी । पत्नी का चेतावनी को तो मैं अभिमानी पति क्यों मानने लगा ? माता की आज्ञा का उल्लंघन मैं करता ही न था । बड़े भाई की बात मैं हमेशा सुनता था । पर उन्हें मैंने यह कह कर शान्त किया : "उसके जो दोष आप बाताते हैं, उन्हें मैं जानता हूँ । उसके गुण तो आप जानते ही नहीं । वह मुझे गलत रास्ते नहीं ले जायेगा, क्योंकि उसके साथ मेरी सम्बन्ध उसे सुधारने के लिए ही हैं । मुझे यह विश्वास हैं कि अगर वह सुधर जाये, तो बहुत अच्छा आदमी निकलेगा । मैं चाहता हूँ कि आप मेरे विषय में निर्भय रहें । " मैं नहीं मानता कि मेरी इस बात से उन्हें संतोष हुआ, पर उन्होंने मुझ प विश्वास किया और मुझे मेरे रास्ते जाने दिया । बाद में मैं देख सका कि मेरी अनुमान ठीक नहीं था । सुधार करने के लिए भी मनुष्य को गहरे पानी में नहीं पैठना चाहिये । जिसे सुधारना हैं उसके साथ मित्रता नहीं हो सकती । मित्रता में अद्वैत-भाव होता हैं । संसार में ऐसी मित्रता क्वचित् ही पायी जाती है । मित्रता समान गुणवालों के बीच शोभती और निभती हैं । मित्र एक-दूसरे को प्रभावित किये बिना रह ही नहीं सकते । अतएव मित्रता में सुधार के लिए बहुत अवकाश रहता हैं । मेरी राय हैं कि घनिष्ठ मित्रता अनिष्ट हैं, क्योंकि मनुष्य दोषों को जल्दी ग्रहण करता हैं । गुण ग्रहण करने के लिए प्रयास की आवश्यकता हैं । जो आत्मा की, ईश्वर की मित्रता चाहता हैं, उसे एकाकी रहना चाहिये, अथवा समूचे संसार के साथ मित्रता रखनी चाहिये । ऊपर का विचार योग्य हो तो अथवा अयोग्य, घनिष्ठ मित्रता बढ़ाने का मेरा प्रयोग निष्फल रहा । जिन दिनों मैं इन मित्र के संपर्क में आया, उन दिनों राजकोट में सुधारपंथ का जोर था । मुझे इन मित्र ने बताया कि कई हिन्दू शिक्षक छिपे-छिपे माँसाहार और मद्यपान करते हैं । उन्होंने रोजकोट के दूसरे प्रसिद्ध गृहस्थों के नाम भी दिये । मेरे सामने हाईस्कूल में कुछ विद्यार्थियों के नाम भी आये । मुझे तो आश्चर्य हुआ और दुःख भी । कारण पूछने पर यह दलील दी गयी: 'हम माँसाहार नहीं करते इसलिए प्रजा के रुप में हम निर्वीर्य हैं। अंग्रेज हम पर इसलिए राज्य करते हैं कि वे माँसाहारी हैं । मैं कितना मजबूत हूँ और कितना दौड़ सकता हूँ, सो तो तुम जानते ही हो । इसका कारण माँसाहार ही हैं । माँसाहारी को फोड़े नही होते , होने पर झट अच्छे हो जाते हैं । हमारे शिक्षक माँस खाते हैं । इतने प्रसिद्ध व्यक्ति खाते हैं ? सो क्या बिना समझे खाते हैं? तुम्हें भी खाना चाहिये । खाकर देखो कि तुममे कितनी ताकत आ जाती हैं।' ये सब दलीलें किसी एक दिन नहीं दी गयी थी । अनेक उदाहरणों से सजाकर इस तरह की दलीलें कई बार दी गयीं । मेरे मझले भाई तो भ्रष्ट हो चुके थे । उन्होंने इन दलीलों की पुष्टि की । अपने भाई की तुलना में मैं तो बहुत दुबला था । उनके शरीर अधिक गठीले थे । उनका शaरीरिक बल मुझसे कहीं ज्यादा था । वे हिम्मतवर थे । इन मित्र के पराक्रम मुझे मुग्ध कर देते थे । वे मनचाहा दौड़ सकते थे । उनकी गति बहुत अच्छी थी । वे खूब लम्बा और ऊँचा कूद सकते थे । मार सहन करने की शक्ति भी उनमें खूब थी । अपनी इस शक्ति का प्रदर्शन भी वे मेरे सामने समय-समय पर करते थे । जो शक्ति अपने में नहीं होती, उसे दूसरों में देखकर मनुष्य को आश्चर्य होता ही हैं । मुझ में दौड़ने-कूदने की शक्ति नहीं के बराबर थी । मैं सोचा करता कि मैं भी बलबान बन जाउँ, तो कितना अच्छा हो ! इसके अलावा मैं डरपोक था। चोर, भूत, साँप आदि के डर से घिरा रहता था । ये डर मुझे हैरान भी करते थे । रात कहीं अकेले जाने की हिम्मत नहीं थीं । अंधरे मे तो कहीं जाता ही न था । दीये के बिना सोना लगभग असंभव था । कहीं इधर से भूत न आ जाये, उधर से चोर न आ जाये और तीसरी जगह से साँप न निकल आये ! इसलिए बत्ती की जरुरत तो रहती ही थी । पास में सोयी हुई और अब कुछ सयानी बनी हूई पत्नी से भी अपने इस डर की बात मैं कैसे करता ? मैं यह समझ चुका था कि वह मुझ से ज्यादा हिम्मतवाली हैं और इसलिए मैं शरमाता था । साँप आदि से डरना तो वह जानती ही न थी । अंधेरे में वह अकेली चली जाती थी । मेरे ये मित्र मेरी इन कमजोरियों को जानते थे । मुझसे कहा करते थे कि वे तो जिन्दा साँपो को भी हाथ से पकड़ लेते थे । चोर से कभी नहीं डरते । भूत को तो मानते ही नहीं । उन्होंने मुझे जँचाया कि यह प्रताप माँसाहार का हैं । इन्हीं दिनों नर्मद (गुजराती की नवीनधारा प्रसिद्ध कवि नर्मद, 1833-86) का नीचे लिखा पद गया जाता था : अंग्रेजो राज्य करे, देशी रहे दबाई देशी रहे दबाईस जोने बेनां शरीर भाई । पेलो पाँच हाथ पूरो, पूरो पाँच से नें ।। (अंग्रेज राज्य करते हैं और हिन्दुस्तानी दबे रहते हैं । दोनों के शरीर तो देखो। वे पूरे पाँच हाथ के हैं । एक एक पाँच सौ के लिए काफी हैं।) इन सब बातो का मेरे मन पर पूरा-पूरा असर हुआ । मैं पिघला । मैं यह मानने लगा कि माँसाहार अच्छी चीज हैं । उससे मैं बलबान और साहसी बनूँगा । समूचा देश माँसाहार करे, तो अंग्रेजो को हराया जा सकता हैं । माँसाहार शुरू करने का दिन निश्चित हुआ। इस निश्चय -- इस आरम्भ का अर्थ सब पाठक समझ नहीं सकेंगे । गाँधी परिवार वैष्णव सम्प्रदाय का हैं । माता-पिता बहुत कट्टर वैष्णव माने जाते थे । हवेली ( वैष्णव-मन्दिर) में हमेशा जाते थे । कुछ मन्दिर तो परिवार के ही माने जाते थे । फिर गुजरात में जैन सम्प्रदाय का बड़ा जोर हैं । उसका प्रभाव हर जगह, हर काम में पाया जाता हैं । इसलिए माँसाहार का जैसा विरोध और तिरस्कार गुजरात मे और श्रावको तथा वैष्णवों में पाया जाता हैं, वैसा हिन्दुस्तान या दुनिया में और कहीं नहीं पाया जाता । ये मेरे संस्कार थे । मैं माता-पिता का परम भक्त था । मैं मानता था कि वे मेरे माँसाहार की बात जानेंगे तो बिना मौत के उनकी तत्काल मृत्यु हो जायेगी । जाने-अनजाने मैं सत्य का सेवक तो था ही । मैं ऐसा नहीं कह सकता कि उस समय मुझे यह ज्ञान न था कि माँसाहार करने में माता-पिता को देना होगा । ऐसी हालत में माँसाहार करने का मेरी निश्चय करने का मेरे लिए बहुत गम्भीर और भयंकर बात थी । लेकिन मुझे तो सुधार करना था । माँसाहार का शौक नहीं था । यह सोचकर कि उसमें स्वाद हैं, मैं माँसाहार शुरू नहीं कर रहा था । मुझे तो बलबान और साहसी बनना था, दूसरों को वैसा बनने के लिए न्योतना था फिर अंग्रेजो को हराकर हिन्दुस्तान को स्वतंत्र करना था । स्वराज शब्द उस समय मैने सुना नहीं था । सुधार के इस जोश में मैं होश भूल गया ।
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