मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग तीसरा भाग सेवा-वृति
वकालत का मेरा धन्धा अच्छा चल रहा था , पर उससे मुझे संतोष नहीं था । जीवन अधिक सादा होना चाहिये , कुछ शारीरिक सेवा-कार्य होना चाहिये, यह मन्थन चलता ही रहता था । इतन में एक दिन कोढ़ से पीड़ित एक अपंग मनुष्य मेरे घर आ पहुँचा । उसे खाना देकर बिदा कर देने के लिए दिल तैयार न हुआ । मैने उसको एक कोठरी में ठहराया, उसके घाव साफ किये और उसकी सेवा की । पर यह व्यवस्था अधिक दिन तक चल न सकती थी । उसे हमेशा के लिए घर में रखने की सुविधा मेरे पास न थी , न मुझमें इतनी हिम्मत ही थी । इसलिए मैने उसे गिरमिटयों के लिए चलनेवाले सरकारी अस्पताल में भेज दिया । पर इससे मुझे आश्वासन न मिला । मन मे हमेशा यह विचार बना रहता कि सेवा-शुश्रूषा का ऐसा कुछ काम मैं हमेशा करता रहूँ , तो कितना अच्छा हो ! डॉक्टर बूथ सेंट एडम्स मिशन के मुखिया थे । वे हमेशा अपने पास आनेवालो को मुफ्त दवा दिया करते थे । बहुत भले और दयालु आदमी थे । पारसी रुस्तमजी की दानशीलता के कारण डॉ. बूथ की देखरेख में एक बहुत छोटा अस्पताल खुला । मेरी प्रबल इच्छा हुई कि मैं इस अस्पताल में नर्स का काम करुँ । उसमे दवा देने के लिए एक से दो घंटों का काम रहता था । उसके लिए दवा बनाकर देनेवाले किसी वेतनभोगी मनुष्य की स्वयंसेवक की आवश्यकता थी । मैने यह काम अपने जिम्मे लेने और अपने समय मे से इतना समय बचाने का निर्णय किया । वकालत का मेरा बहुत-सा काम तो दफ्तर में बैठकर सलाह देने , दस्तावेज तैयार करने अथवा झगड़ो का फैसला करना का होता था । कुछ मामले मजिस्ट्रेट की अदालत मे चलते थे । इनमे से अधिकांश विवादास्पद नहीं होते थे । ऐसे मामलो को चलाने की जिम्मेदारी मि. खान में , जो मुझसे बाद में आये थे और जो उस समय मेरे साथ ही रहते थे , अपने सिर पर ले ली और मैं उस छोटे-से अस्पताल मे काम करने लगा । रोज सबेरे वहाँ जाना होता था । आने-जाने में और अस्पताल काम करने प्रतिदिन लगभग दो घंटे लगते थे । इस काम से मुझे थोड़ी शान्ति मिली । मेरा काम बीमार की हालत समझकर उसे डॉक्टर को समझाने और डॉक्टर की लिखी दवा तैयार करके बीमार को दवा देने का था । इस काम से मै दुखी-दर्दी हिन्दुस्तानियों के निकट सम्पर्क मे आया । उनमे से अधिकांश तामिल, तेलुगु अथवा उत्तर हिन्दुस्तान के गिरमिटया होते थे । यह अनुभव मेरे भविष्य में बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ । बोअर-युद्ध के समय घायलो की सेवा-शुश्रूषा के काम में और दूसरे बीमारो की परिचर्चा मे मुझे इससे बड़ी मदद मिली । बालको के पालन-पोषण का प्रश्न तो मेरे सामने था ही । दक्षिण अफ्रीका मे मेरे दो लड़के और हुए । उन्हे किस तरह पाल-पोसकर बड़ा किया जाय, इस प्रश्न को हल करने मे मुझे इस काम ने अच्छी मदद की । मेरा स्वतंत्र स्वभाव मेरी कड़ी कसौटी करता था , और आज भी करता हैं । हम पति-पत्नी ने निश्चय किया था कि प्रसूति आदि का काम शास्त्रीय पद्धति से करेंगे । अतएव यद्यपि डॉक्टर और नर्स की व्यवस्था की गयी थी, तो भी प्रश्न था कि कहीँ ऐन मौके पर डॉक्टर न मिला औऱ दाई भाग गई , तो मेरी क्या दशा होगी ? दाई तो हिन्दुस्तानी ही रखनी थी । तालीम पायी हुई हिन्दुस्तानी दाई हिन्दुस्तान मे भी मुश्किल से मिलती हैं , तब दक्षिण अफ्रीका की तो बात ही क्या कहीं जाय? अतएव मैने बाल-संगोपन का अध्ययन कर लिया । डॉ. त्रिभुवन दास की 'मा ने शिखामण' (माता की सीख) नामक पुस्तक मैने पढ़ ड़ाली । यह कहा जा सकता है कि उसमे संशोधन-परिवर्धन करके अंतिम दो बच्चो को मैने स्वयं पाला-पोसा । हर बार दाई की मदद कुछ समय के लिए ली -- दो महीने से ज्यादा तो ली ही नही , वह भी मुख्यतः धर्मपत्नी की सेवा के लिए ही । बालको को नहलाने-घुलाने का काम शुरु मे मैं ही करता था । अन्तिम शिशु के जन्म के समय मेरी पूरी-पूरी परीक्षा हो गयी । पत्नी को प्रसव-वेदना अचानक शुरु हुई । डॉक्टर घर पर न थे । दाई को बुलवाना था । वह पास होती तो भी उससे प्रसव कराने का काम न हो पाता । अतः प्रसव के समय का सारा काम मुझे अपने हाथो ही करना पड़ा । सौभाग्य से मैने इस विषय को 'मा ने शिखामण' पुस्तक मे ध्यान पूर्वक पढ लिया था । इसलिए मुझे कोई घबराहट न हुई । मैने देखा कि अपने बालको के समुचित पालन-पोषण के लिए माता-पिता दोनो को बाल-सगोपन आदि का साधारण ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये । मैने तो इस विषय की अपनी सावधानी का लाभ पग-पग पर अनुभव किया हैं । मेरे बालक आज जिस सामान्य स्वास्थ्य का लाभ उठा रहे हैं , उसे वे उठा न पाते यदि मैने इस विषय का सामान्य ज्ञान प्राप्त करके उसपर अमल न किया होता । हम लोगो में यह फैला हुआ हैं कि पहले पाँच वर्षो मे बालक को शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता नही होती । पर सच तो यह हैं कि पहले पाँच वर्षो मे बालक को जो मिलता हैं , वह बाद मे कभी नही मिलता । मै यह अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि बच्चे की शिक्षा माँ के पेट से शुरु होती हैं । गर्भाधान-काल की माता-पिता की शारीरिक और मानसिक प्रभाव बालक पर पड़ता हैं । गर्भ के समय माता की प्रकृति औऱ माता के आहार-विहार के भले-बुर फलो की विरासत लेकर बालक जन्म लेता हैं । जन्म के बाद वह माता-पिता का अनुकरण करने लगता हैं और स्वयं असहाय होने के कारण उसके विकास का आधार माता-पिता पर रहता है । जो समझदार दम्पती इन बातो को सोचेंगे वे पति-पत्नी के संग को कभी विषय-वासना की तृप्ति का साधन नही बनायेंगे , बल्कि जब उन्हें सन्तान की इच्छा होगी तभी सहवास करेंगे । रतिसुख एक स्वतंत्र वस्तु हैं , इस धारणा में मुझे तो घोर अज्ञान ही दिखायी पड़ता हैं । जनन-क्रिया पर संसार के अस्तित्व का आधार हैं । संसार ईश्वर की लीलाभूमि हैं , उसकी महिमा का प्रतिबिम्ब हैं । उसकी सुव्यवस्थित बुद्धि के लिए ही रतिक्रिया का निर्माण हुआ हैं , इस बात को समझनेवाला मनुष्य विषय-वासना को महा-प्रयत्न करके भी अंकुश में रखेगा औऱ रतिसुख के परिणाम-स्वरुप होने वाली संतति की शारीरिक , मानसिक और आध्यात्मिक रक्षा के लिए जिस ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक हो उसे प्राप्त करके उसका लाभ अपनी सन्तान को देगा ।
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