मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

तीसरा भाग

ब्रह्मचर्य -1

 

अब ब्रह्मचर्य के विषय मे विचार करने का समय आ गया हैं । एक पत्नी व्रत का तो विवाह के समय से ही मेरे हृदय मे स्थान था । पत्नी के प्रति वफादारी मेरे सत्यव्रत का अंग था । पर अपनी स्त्री के साथ भी ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये , इसका स्पष्ट बोध मुझे दक्षिण अफ्रीका मे ही हुआ । किस प्रसंग से अथवा किस पुस्तक के प्रभाव से यह विचार मेरे मन मे उत्पन्न हुआ , यो तो आज मुझे स्पष्ट याद नही हैं कि इसमे रायचंदभाई के प्रभाव की प्रधानता थी ।

उनके साथ के संवाद का मुझे स्मरण हैं । एक बार मैं ग्लैडस्टन के प्रति मिसेज ग्लैडस्टन के प्रेम की प्रशंसा कर रहा था । मैने कहीं पढ़ा था कि पार्लियामेंट की सभा मे भी मिसेज ग्लैडस्टन अपने पति को चाय बनाकर पिलाती थी । इस वस्तु का पालन इस नियमबद्ध दम्पती के जीवन का एक नियम बन गया था । मैने कवि को यह प्रसंग पढ़कर सुनाया और उसके सन्दर्भ में दम्पती प्रेम की स्तुति की । रायचन्दभाई बोले, 'इसमे तुम्हे महत्त्व की कौन सी बात मालूम होती हैं ? मिसेज ग्लैडस्टन का पत्नीत्व या उनका सेवाभाव? यदि वे ग्लैडस्टन की बहन होती तो ? अथवा उनकी वफादार नौकरानी होती और उतने ही प्रेम से चाय देती तो ? ऐसी बहनों, ऐसी नौकरानियों के दृष्टांत क्या हमे आज नही मिलते ? और नारी-जाति के बदले ऐसा प्रेम यदि तुमने नर-जाति मे देखा , तो क्या तुम्हे सानन्द आश्चर्य न होता ? तुम मेरे इस कथन पर विचार करना । '

रायचन्द भाई स्वयं विवाहित थे । याद पड़ता है कि उस समय तो मुझे उनके ये वचन कठोर लगे थे, पर इन वचनो ने मुझे चुम्बक की तरह पकड़ लिया । मुझे लगा कि पुरुष सेवक की ऐसी स्वामीभक्ति का मूल्य पत्नी की पति-निष्ठा के मूल्य से हजार गुना अधिक हैं । पति-पत्नी में ऐक्य होता हैं, इसलिए उनमे परस्पर प्रेम हो तो कोई आश्चर्य नही । मालिक और नौकर के बीच वैसा प्रेम प्रयत्न-पूर्वक विकसित करना होता हैं । दिन-पर-दिन कवि के वचनो का बल मेरी दृष्टि में बढता प्रतीत हुआ ।

मैने अपने-आप से पूछा, मुझे अपनी पत्नी के साथ कैसा सम्बन्ध रखना चाहिये । पत्नी को विषय-भोग का वाहन बनाने मे पत्नी के प्रति वफादारी कहाँ रहती हैं ? जब तक मैं विषय-वासना के अधीन रहता हूँ, तब तक तो मेरी वफादारी का मूल्य साधारण ही माना जायगा । यहाँ मुझे यह कहना ही चाहिये कि हमारे आपस के सम्बन्ध मे पत्नी की ओर से कभी आक्रमण हुआ ही नहीं । इस दृष्टि से जब मैं चाहता तभी मेरे लिए ब्रह्मचर्य का पालन सुलभ था । मेरी अशक्ति अथवा आशक्ति ही मुझे रोक रही थी ।

जाग्रत होने के बाद भी दो बार तो मै विफल ही रहा । प्रयत्न करता परन्तु गिर पड़ता । प्रयत्न में मुख्य उद्देश्य था, सन्तानोत्पत्ति को रोकना । उसके बाह्य उपचारो के बारे में मैने विलायत में कुछ पढ़ा था । डॉ. एलिन्सन के इन उपायो के प्रचार का उल्लेख मैं अन्नाहार-विषयक प्रकरण में कर चुका हूँ । उसका थोड़ा और क्षणिक प्रभाव मुझ पर पड़ा था । पर मि. हिल्स ने उसका जो विरोध किया था और आन्तरिक साधन के -- संयम के -- समर्थन में जो कहा था, उसका प्रभाव मुझ पर बहुत अधिक पड़ा और अनुभव से वह चिरस्थायी बन गया । इसलिए सन्तानोत्पत्ति की अनावश्यकता ध्यान मे आते ही मैने संयम-पालन का प्रयत्न शुरु कर दिया ।

संयम पालन की कठिनाईयों का पार न था । हमने अलग खाटें रखी । रात में पूरी तरह थकने के बाद ही सोने का प्रयत्न किया । इस सारे प्रयत्न का विशेष परिणाम मै तुरन्त नही देख सका । पर आज भूतकाल पर निगाह डालते हुए देखता हूँ कि इन सब प्रयत्नो मे मुझे अंतिम निश्चय का बल दिया ।

अंतिम निश्चय तो मैं सन् 1906 मे ही कर सका था । उस समय सत्याग्रह का आरम्भ नहीं हुआ था । मुझे उसका सपना तक नही आया था । बोअर-युद्ध के बाद नेटाल में जुलू 'विद्रोह' हुआ । उस समय मैं जोहानिस्बर्ग मे वकालत करता था । पर मैने अनुभव किया कि इस 'विद्रोह' के मौके पर भी मुझे अपनी सेवा नेटाल सरकार को अर्पण करनी चाहिये । मैने सेवा अर्पण की और वह स्वीकृत हुई । उसका वर्णन आगे आयेगा । पर इस सेवा के सिलसिले में मेरे मन मे संयम-पालन के तीव्र विचार उत्पन्न हुए । अपने स्वभाव के अनुसार मैने साथियों से इसकी चर्चा की । मैने अनुभव किया कि सन्तानोत्पत्ति और सन्तान का लालन-पालन सार्वजनिक सेवा के विरोधी हैं। इस 'विद्रोह' मे सम्मिलित होने के लिए मुझे जोहानिस्बर्ग की अपनी गृहस्थी उजाड़ देनी पड़ी थी । टीप-टाप से बसाये गये घर का और साज-समान का , जिसे बसाये मुश्किल से एक महीना हुआ होगा, मैने त्याग कर दिया । पत्नी और बच्चो को फीनिक्स मे रख दिया और मै डोली उठाने वालो की टुकड़ी लेकर निकल पड़ा । कठिन कूच करते हुए मैने देखा कि यदि मुझे लोकसेवा मे ही तन्मय हो जाना हो तो पुत्रैषणा और वितैषणा का त्याग करना चाहिये और वानप्रस्थ-धर्म पालना चाहिये ।

'विद्रोह' मे तो मुझे डेढ महीने से अधिक का समय नही देना पड़ा , पर छह हफ्तो का यह समय मेरे जीवन का अत्यन्त मूल्यवान समय था । इस समय मैने व्रत के महत्त्व को अधिक से अधिक समझा । मैने देखा कि व्रत बन्धन नही, बल्कि स्वतंत्रता का द्बार हैं । आज तक मुझे अपने प्रयत्नों में चाहिये उतनी सफलता न मिलने का कारण यह था कि मों ढृढनिश्चयी नही था । मुझे अपनी शक्ति पर अविश्वास था, ईश्वर की कृपा पर अविश्वास था, और इस कारण मेरा मन अनेक तरंगो और अनेक विचारों के चक्कर में पड़ा रहता था । मैने देखा कि व्रत-बद्ध न होने से मनुष्य मोह में पड़ता हैं । व्रत से बंधना व्यभिचार से छुटकारा पाकर एकपत्नी व्रत का पालन करने के समान हैं । 'मैं प्रयत्न करने मे विश्वास रखता हूँ, व्रत से बन्धन नहीं चाहता ' - यह वचन निर्बलता की निशानी हैं, और इसमे सूक्ष्म रुप से भोग की वासना छिपी होती हैं । जो वस्तु त्याज्य हैं, उसका सर्वथा त्याग करने मे हानि कैसे हो सकती हैं ? जो साँप मुझे डंसने वाला है, उसका त्याग मै निश्चय-पूर्वक करता हूँ , त्याग का केवल प्रयत्न नही करता । मै जानता हूँ कि केवल प्रयत्न के भरोसे रहने मे मृत्यु निहित हैं । प्रयत्न मे साँप की विकरालता के स्पष्ट ज्ञान का अभाव हैं । इसी तरह हम केवल वस्तु के त्याग का हम केवल प्रयत्न करते है उस वस्तु के त्याग के औचित्य के बारे में हमे स्पष्ट दर्शन नही हुआ हैं , यह सिद्ध होता है । 'आगे चलकर मेरे विचार बदल जाये तो ?' ऐसी शंका करके प्रायः हम व्रत लेने से डरते हैं । इस विचार मे स्पष्ट दर्शन का अभाव ही हैं । इसीलिए निष्कुलानन्द ने कहा हैं :

'त्याग न टके रे वैराग बिना ।'

जहाँ अमुक वस्तु के प्रति संपूर्ण वैराग्य उत्पन्न हो गया हैं, वहाँ उसके विषय मे व्रत लेना अनिवार्य हो जाता हैं ।

 

 

 

 

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