मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग दूसरा भाग प्रिटोरिया मे पहला दिन
मुझे आशा थी कि प्रिटोरिया स्टेशन पर दादा अब्दुल्ला के वकील की ओर से कोई आदमी मुझे मिलेगा । मैं जानता था कि कोई हिन्दुस्तानी को मुझे लेने आया ही न होगा औऱ किसी भी हिन्दुस्तानी के घर न रहने के बचन से मैं बँधा हुआ था । वकील में किसी आदमी को स्टेशन पर भेजा न था । बाद में मुझे पता चला कि मेरे पहुँचने के दिन रविवार था , इसलिए थोडी असुविधा उठाये बिना वे किसी को भेज नहीं सकते थे । मैं परेशान हुआ । सोचने लगा , कहाँ जाऊँ ? डर था कि कोई होटल मुझे जगह न देगा । सन् 1893 का प्रिटोरिया स्टेशन 1914 के प्रिटोरिया स्टेशन से बिल्कुल भिन्न था । धीमी रोशनीवाली बत्तियाँ जल रही थी । यात्री अधिक नहीं थे । मैने सब यात्रियों को जाने दिया और सोचा कि टिकट कलेक्टर को थोड़ी फुरसत होने पर अपना टिकट दूँगा और यदि वह मुझे किसी छोटे से होटल का या ऐसे मकान का पता देगा तो वहाँ चला जाऊँगा , या फिर रात स्टेशन पर ही पड़ा रहूँगा । इतना पूछने के लिए भी मन बढता न था, क्योकि अपमान होने का डर था । स्टेशन खाली हुआ। मैने टिकट कलेक्टर को टिकट देकर पूछताछ शुरु की । उसने सभ्यता से उत्तर दिये पर मैने देखा कि वह मेरी अधिक मदद नही कर सकता था । उसकी बगल मे एक अमेरिकन हब्शी सज्जन खड़े थे । उन्होने मुझसे बातचीत शुरु की , 'मै देख रहा हूँ कि आप बिल्कुल अजनबी हैं और यहाँ आपका कोई मित्र नहीं हैं । अगर आप मेरे साथ चले तो मैं आपको एक छोटे से होटल में ले चलूँगा । उसका मालिक अमेरिकन हैं और मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ । मेरा ख्याल है कि वह आपको टिका लेगा । ' मुझे थोडा शक तो हुआ पर मैने इन सज्जन को उपकार माना और उनके साथ जाना स्वीकार किया । वे मुझे जॉन्स्टन फेमिली होटल मे ले गये । पहले उन्होने मि. जॉन्स्टन को एक ओर ले जाकर थोडी बात की । मि. जॉन्स्टन ने मुझे एक रात के लिए टिकाना कबूल किया और वह भी इस शर्त पर की भोजन मेरे कमरे में पहुँचा देंगे । मि. जॉन्स्टन ने कहा, 'मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरे मन में तो काले-गोरे का कोई भेद नहीं हैं , पर मेरे ग्राहक सब गोरे हैं । यदि मैं आपको भोजन गृह में भोजन कराऊँ, तो मेरे ग्राहक शायद बुरा मानेंगे और शायद वे चले जायेंगे ।' मैने जवाब दिया, 'आपको मुझे एक रात के लिए रहने दे रहे हैं , इसे भी मैं आपका उपकार मानता हूँ । इस देश की स्थिति से मैं कुछ कुछ परिचित हो चुका हूँ । मैं आपकी कठिनाई को समझ सकता हूँ । मुझे आप खुशी से मेरे कमरे में खाना दीजिये । कल तक मैं दूसरा प्रबंध कर लेने की आशा रखता हूँ । ' मुझे कमरा दिया गया । मैने उसमे प्रवेश किया । एकान्त मिलने पर भोजन की राह देखता हुआ मैं विचारो मे डूब गया । इस होटल में अधिक यात्री नहीं रहते थे । कुछ देर बाद भोजन के साथ वेटर को आता देखने के बदले मैने मि. जॉन्स्टन को देखा । उन्होने कहा, 'मैने आपको कमरे मे खाना देने की बात कही थी । परक मैने उसमे शरम महसूस की, इसलिए अपने ग्राहको से आपके विषय मे बातचीत करके उनकी राय जानी । आप भोजन गृह में बैठकर भोजन करे तो उन्हें कोई आपत्ति नहीँ हैं । इसके अलावा आप यहाँ जितने दिन भी रहना चाहे, उनकी ओर से कोई रुकावट नही होगी । इसलिए अब आप चाहे तो भोजन गृह में आइये और जब तक जी चाहे यहाँ रहियें ।' मैने फिर उनका उपकार माना और भोजन गृह में गया । निश्चिंत होकर भोजन किया । दूसरे दिन सबेरे मैं वकील के घर गया । उनका नाम था ए. डब्ल्यू बेकर । उनसे मिला । अब्दुल्ला सेठ ने मुझे उनके बारे में कुछ बता दिया था। इसलिए हमारी पहली मुलाकात से मुझे कोई आश्चर्य न हूआ । वे मुझ से प्रेमपूर्वक मिले और मेरे बारे में कुछ बाते पूछी , ज मैने उन्हें बतला दी । उन्होने कहा, 'बारिस्टर के नाते तो आपका कोई उपयोग हो ही न सकेगा। इस मुकदमे के लिए हमने अच्छे से अच्छे बारिस्टर कर रखे है । मुकदमा लम्बा है और गुत्थियों से भरा हैं । इसलिए आपसे मै आवश्यक तथ्य आदि प्राप्त करने का ही काम ले सकूँगा । पर इतना फायदा अवश्य होगा कि अपने मुवक्किल के साथ पत्र-व्यवहार करने मे मुझे अब आसानी हो जायगी और तथ्यादि की जो जानकारी मुझे प्राप्त करनी होगी , वह मैं आपके द्वारा मँगवा सकूँगा । आपके लिए अभी तक मैने कोई मकान तो तलाश नहीं किया हैं । सोचा था कि आपको देखने के बाद खोज लूँगा। यहाँ रंगभेद बहुत हैं, इसलिए घर मिलना आसान नहीं है । पर मैं एक बहन को जानता हूँ । वह गरीब हैं, भटियारे का स्त्री हैं । मेरा ख्याल हैं कि वह आपको टिका लेगी । उसे भी कुछ मदद हो जायगी । चलिये , हम उसके यहाँ चले। ' यों कहकर वे मुझे वहाँ ले गये । मि. बेकर ने उस बहन को एक ओर ले जाकर उससे कुछ बाते की और उसने मुझे टिकाना स्वीकार किया । हफ्ते के पैतीस शिलिंग देने का निश्चय हुआ । मि. बेकर वकील थे और कट्टर पादरी भी थे । वे आज भी जीवित हैं , और आजकव केवल पादरी का ही काम करते हैं । वकालत उन्होने छोड दी हैं । रुपये पैसे से सुखी हैं । उन्होने मेरे साथ अब तक पत्र व्यवहार जारी रखा हैं । पत्रों का विषय एक ही होता हैं । वे अपने पत्रों मे अलग-अलग ढंग से ईसाई धर्म की उत्तमता की चर्चा करते हैं और इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि ईसा को ईश्वर का एकमात्र पुत्र और तारनहार माने बिना परम शान्ति नहीं मिल सकती । हमारी पहली ही मुलाकात में मि. बेकर धर्म-सम्बन्धी मेरी मनःस्थिति जान ली । मैने उन्हे बता दिया, 'मै जन्म से हिन्दू हूँ । इस धर्म का भी मुझे अधिक ज्ञान नहीं हैं । दूसरे धर्मों का भी ज्ञान भी कम ही हैं । मैं कहाँ हूँ , क्या मानता हूँ , मुझे क्या मानना चाहिये, यह सब मैं नहीं जानता । अपने धर्म का अध्ययन मैं गम्भीरता से करना चाहता हूँ । दूसरे धर्मो का अध्ययन भी यथाशक्ति करने का मेरा इरादा हैं । ' यह सब सुनकर मि. बेकर खुश हुए और बोले, 'मैं स्वयं साउथ अफ्रीका जनरल मिशन का एक डायरेक्टर हूँ । मैने अपने खर्चे से एक गिरजाघर बनवाया हैं । उसमे समय-समय पर धर्म-सम्बन्धी व्याख्यान दिया करता हूँ ।' मैं रंगभेद को नहीं मानता । मेरे साथ काम करने वाले कुछ साथी भी हैं । हम प्रतिदिन एक बजे कुछ मिनट के लिए मिलते है और आत्मा तथा प्रकाश ( ज्ञान के उदय) के लिए प्रार्थना करते हैं । उसमे आप आयेगे , तो मुझे खुशी होगी । वहाँ मैं अपने साथियों से भी आपकी पहचान करा दूँगा । वे सब आपसे मिलकर प्रसन्न होंगे । और मुझे विश्वास है कि उनका समागम आपको भी अच्छा लगेगा । मैं आपको कुछ धार्मिक पुस्तकें भी पढने के लिए दूँगा , पर सच्ची पुस्तक तो बाइबल ही हैं । मेरी सलाह है कि आप उसे अवश्य पढिये । मैने मि. बेकर को धन्यवाद दिया औऱ अपने बसभर रोज एक बजे उनके मंडस में प्रार्थना के लिए पहुँचना स्वीकार किया । 'तो कल एक बजे यहीं आइयेगा । हम साथ ही प्रार्थना मन्दिर चलेंगे ।' हम जुदा हुए । अधिक विचार करने की अभी मुझे फुरसत नहीं थी । मैं मि. जाँन्स्टन के पास गया । बिल चुकाया । नये घर मे पहुँचा । घर मालकिन भली स्त्री थी । उसने मेरे लिए अन्नाहार तैयार किया था । इस कुटुम्ब में घुलमिल जाने मे मुझे देर न लगी । भोजन से मिबटकर मैं उन मित्र से मिलने गया, जिनके नाम दादा अब्दुल्ला ने मुझे पत्र दिया था । उनसे जान पहचान हुई । हिन्दुस्तानियों की दुर्दशा की विशेष बाते उनसे जानने को मिली। उन्होने मुझ से अपने घर रहने का आग्रह किया । मैने उन्हें धन्यवाद दिया और मेरे लिए जो व्यवस्था हो चुकी थी । उसकी बात कही । उन्होने मुझ से आग्रहपूर्वक कहा कि जिस चीज की आवश्यकता हो मैं उनसे माँग लूँ ।
शाम हुई । ब्यालू की और मैं तो अपने कमरे में जाकर विचारो के चक्कर में पड़ गया । मैने अपने लिए तुरन्त कोई काम नहीं देखा । अब्दुल्ला सेठ को इसकी सूचना भेज दी । मि. बेकर की मित्रता का क्या अर्थ हो सकता हैं ? उनसे धर्म-बन्धुओ से मुझे क्या मिल सकेगा ? ईसाई धर्म का अध्ययन मुझे किस हद तक करना चाहिये ? हिन्दु धर्म का साहित्य कहाँ से प्राप्त किया जाये ? उसे समझे बिना मैं ईसाई धर्म के स्वरुप को कैसे समझ सकता हूँ ? मैं एक ही निर्णय कर सका, मुझे जो भी पढने को मिले उसे मैं निष्पक्ष भाव से पढूँ और मि. बेकर के समुदाय को , भगवान जिस समय जो सुझा दे , सो जवाब दूँ । जब तक मैं अपने धर्म को पूरी तरह समझ न लूँ, तब तक मुझे दूसरे धर्मो को अपनाने का विचार नहीं करना चाहिये । इस तरह सोचता हुआ मैं निद्रावश हो गया ।
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