मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग दूसरा भाग ईसाईयो से संपर्क
दूसरे दिन एक बजे मैं मि. बेकर के प्रार्थना समाज में गया । वहाँ मिस हेरिस, मिस गेब , मि. कोट्स आदि से परिचय हुआ । सबने घुटने के बल बैटकर प्रार्थना की । मैने भी उनका अनुसरण किया । प्रार्थना में जिसकी जो इच्छा होती , सो ईश्वर से माँगता । दिन शान्ति से बीते , ईश्वर हमारे हृदय के द्वार खोले , इत्यादि बाते तो होती ही थी । मेरे लिए भी प्रार्थना की गई , 'हे, प्रभु, हमारे बीच जो नये भाई आये हैं उन्हें तू मार्ग दिखा। जो शान्ति तूने हमें दी हैं , वह उन्हें भी दे । जिस ईसा ने हमे मुक्त किया हैं, वह उन्हें भी मुक्त करे । यह सब हम ईसा के नाम पर माँगते हैं ।' इस प्रार्थना में भजन कीर्तन नहीं था । वे लोग ईश्वर से कोई भी एक चीज माँगते और बिखर जाते । यह समय सबके भोजन को होता था , इसलिए प्रार्थना के बाद सब अपने-अपने भोजन के लिए चले जाते थे । प्रार्थना मे पाँच मिनट से अधिक नहीं लगते थे । मिस हेरिस और मिस गेब दोनो पौढ़ अवस्था की कुमारिकाये थी । मि. कोट्स क्वेकर थे । ये दोनो कुमारिकाये साथ रहती थी । उन्होने मुझे रविवार को चार बजे की चाय के लिए अपने घर आने का निमंत्रण दिया । मि. कोट्स जब मिलते तो मुझे हर रविवार को मुझे हफ्ते भर की अपनी धार्मिक डायरी सुनाती पड़ती । कौन कौन सी पुस्तकें मैने पढ़ी , मेरे मन पर उनका क्या प्रभाव पड़ा , इसकी चर्चा होती । वे दोनो बहने अपने मीठे अनुभव सुनाती औऱ अपने को प्राप्त हुई परम शान्ति की बाते करती । मि. कोट्स एक साफ दिल वाले चुस्त नौजवान थे । उनके साथ मेरा गाढ़ संबंध हो गया था । हम बहुत बार एकसाथ घूमने भी जाया करते थे । वे मुझे दूसरे ईसाईयो के घर भी ले जाते थे । मि. कोट्स ने मुझे पुस्तकों से लाद दिया । जैसे जैसे वे मुझे पहचानते जाते, वैसे वैसे उन्हें अच्छी लगनेवाली पुस्तके वे मुझे पढने को देते रहते । मैने भी केवल श्रद्धावश ही उन पुस्तको को पढ़ना स्वीकार किया । इन पुस्तकों की हम आपस में चर्चा भी किया करते थे । सन् 1892 वर्ष में मैंने ऐसी पुस्तके बहुत पढ़ी । उन सबके नाम तो मुझे याद नहीं हैं , लेकिन उनमे सिटी टेम्पल वाले डॉ. पारकर की टीका, पियर्सन की 'मेनी इनफॉलिबल प्रुफ्स', बटलर की 'एनॉलोजी' इत्यादि पुस्तके थी । इनमे का कुछ भाग तो समझ में न आता , कुछ रुचता और कुछ न रुचता । मैं मि. कोट्स को ये सारी बाते सुनाता रहता । 'मेनी इनफॉलिबल प्रुफ्स' का अर्थ हैं , कई अचूक प्रमाण अर्थात लेखक की राय में बाइबल मे जिस धर्म का वर्णन हैं, उसके समर्थन के प्रमाण । मुझ पर इस पुस्तक का कोई प्रभाव नहीं पडा । पारकर की टीका नीतिवर्धक मानी जा सकती हैं , पर ईसाई धर्म की प्रचलित मान्यताओं के विषय में शंका रखने वालो को उससे कोई मदद नहीं मिल सकती थी । बटलर की 'एनॉलोजी' बहुत गम्भीर और कठिन पुस्तक प्रतीत हुई । उसे अच्छी तरह समझने के लिए पाँच-सात बार पढना चाहिये । वह नास्तिक को आस्तिक बनाने की पुस्तक जान पड़ी । उसमें ईश्वर के अस्तित्व के बारे में दी गयी दलीले मेरे किसी काम की न थी, क्योकि वह समय मेरी नास्तिकता का नहीं था । पर ईशा के अद्वितीय अवतार के बारे में और उनके मनुष्य तथा ईश्वर के बीच संधि करने वाला होने के बारे मे जो दलीलें दी गयी थी, उनकी मुझ पर कोई छाप नहीं पड़ी । पर मि. कोट्स हारने वाले आदमी नही थे । उनके प्रेम का पार न था । उन्होने मेरे गले में बैष्णवी कंठी देखी । उन्हें यह वहम जान पड़ा और वे दुखी हुए । बोले, 'यह वहम तुम जैसो को शोभा नहीं देता। लाओ इसे तोड़ दूँ ।' 'यह कंठी नही टूट सकती, माताजी की प्रसादी हैं।' 'पर क्या तुम इसमे विश्वास करते हो ?' 'मै इसका गूढार्थ नहीं जानता । इसे न पहनने से मेरा अकल्याण होगा , ऐसा मुझे प्रतीत नहीं होता । पर माता जी ने जो माला मुझे प्रेमपूर्वक पहनायी हैं , जिसे पहनाने मे उन्होंने मेरा कल्याण माना हैं , उसके त्याग मैं बिना कारण नही करूँगा । समय पाकर यह जीर्ण हो जायेगी और टूट जायगी , तो दूसरी प्राप्त करके पहनने का लोभ मुझे नही रहेगा । पर यह कठी टूट नही सकती।' मि. कोट्स मेरी इस दलील की कद्र नही कर सके क्योकि उन्हे तो मेरे धर्म के प्रति अनास्था थी । वे मुझे अज्ञान-कूप मे से उबार लेने की आशा रखते थे । वे मुझे यह बताना चाहते थे कि दूसरे धर्मों मे भले ही कुछ सत्य हो, पर पूर्ण सत्यरुप ईसाई धर्म को स्वीकार किये बिना मोक्ष मिल ही नही सकता, ईसा की मध्यस्थता के बिना पाप धुल ही नही सकते और सारे पुण्यकर्म निरर्थक हो जाते हैं । मि. कोट्स ने जिस प्रकार मुझे पुस्तकों का परिचय कराया, उसी प्रकार जिन्हे वे धर्मप्राण ईसाई मानते थे उनसे भी मेरा परिचय कराया । इन परिचयो मे एक परिचय 'प्लीमथ ब्रदरन' से सम्बंधित कुटुम्ब का था । प्लीमथ ब्रदरन नाम का एक ईसाई सम्प्रदाय हैं । कोट्स के कराये हुए बहुत से परिचय मुझे अच्छे लगे । वे लोग मुझे ईश्वर से डरने वाले जान पड़े । पर इस कुटुम्ब मे एक भाई ने मुझसे दलील की, 'आप हमारे धर्म की खूबी नही समझ सकते । आपकी बातो से हम देखते है कि आपको क्षण-क्षण मे अपनी भूलो का विचार करना होता हैं । उन्हे सदा सुधारना होता हैं । न सुधारने पर आपको पश्चाताप करना पड़ता हैं, प्रायश्चित करन होता हैं । इस क्रियाकांड से आपको मुक्ति कब मिल सकती हैं ? शान्ति आपको मिल ही नही सकती । आप यह तो स्वीकार करते ही है कि हम पापी हैं । अब हमारे विश्वास की परिपूर्णता देखिये । हमारा प्रयत्न व्यर्थ हैं । फिर भी मुक्ति की आवश्यकता तो है ही । पाप को बोझ कैसे उठे? हम उसे ईसा पर डाल दे । वह ईश्वर का एकमात्र पुत्र हैं । उसका वरदान है कि जो ईश्वर को मानते हो उनके पाप वह धो देता हैं। ईश्वर की यह अगाध उदारता हैं । ईसा की इस मुक्ति योजना को हमने स्वीकार किया हैं , इसलिए हमारे पाप हमसे चिपटते नही । पाप तो मनुष्य से होते ही हैं । इस दुनिया मे निष्पाप कैसे रहा जा सकता हैं ? इसी से ईसा ने सारे संसारो का प्रायश्चित एक ही बार में कर डाला । जो उनके महा बलिदान का स्वीकार करना चाहते हैं , वे वैसा करके शान्ति प्राप्त कर सकते हैं । कहाँ आपकी अशान्ति और कहाँ हमारी शान्ति ?' यह दलील मेरे गले बिल्कुल न उतरी । मैने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया, 'यदि सर्वमान्य ईसाई धर्म यही हैं , तो वह मेरे काम का नहीं हैं । मै तो पाप-वृति से, पापकर्म से मुक्ति चाहता हूँ । जब तर वह मुक्ति नही मिलती , तब तक अपनी यह अशान्ति मुझे प्रिय रहेगी ।' प्लीमथ ब्रदर ने उत्तर दिया, 'मै आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपका प्रयत्न व्यर्थ हैं । मेरी बात पर आप फिर सोचियेगा ।' औऱ इन भाई ने जैसा कहा वैसा अपने व्यवहार द्वारा करके भी दिखा दिया, जान बूझकर अनीति कर दिखायी । पर सब ईसाईयो की ऐसी मान्यता नहीं होती , यह तो मैं इन परिचयो से पहले ही जान चुका था । मि. कोट्स स्वयं ही पाप से डरकर चलनेवाले थे । उनका हृदय निर्मल था । वे हृदय शुद्धि की शक्यका मे विशवास रखते थे । उक्त बहने भी वैसी ही थी । मेरे हाथ पड़ने वाली पुस्तको मे से कई भक्तिपूर्ण थी । अतएव इस परिचय से मि. कोट्स को जो धबराहट हुई उसे मैने शांत किया औऱ उन्हे विश्वास दिलाया कि एक प्लीमथ ब्रदर की अनुचित धारणा के कारण मै ईसाई धर्म के बारे मे गलत राय नहीं बना सकता । मेरी कठिनाईयाँ तो बाइबल के बारे मे और उसके गूढ अर्थ के बारे में थी ।
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