मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

दूसरा भाग

धार्मिक मंथन

 

अब फिर ईसाई मित्रो के साथ अपने सम्पर्क पर विचार करने का समय आया हैं ।

मेरे भविष्य बारे मे मि, बेकर की चिन्ता बढ़ती जा रही थी । वे मुझे वेलिंग्टन कन्वेन्शन में ले गये । प्रोटेस्टेंट ईसाइयों में कुछ वर्षों के अन्तर से धर्म-जागृति अर्थात आत्मशुद्धि के लिए विशेष प्रयत्न किये जाते हैं । ऐसा एक सम्मेलन वेलिंग्टन मे था । उसके सभापति वहाँ के प्रसिद्ध धर्मनिष्ठ पादरी रेवरेंड एंड्रमरे थे । मि. बेकर को यह आशा थी कि इस सम्मेलन मे होनेवाली जागृति , वहाँ आने वाले लोगो के धार्मिक उत्साह और उनकी शुद्धता की मेरे हृदय पर ऐसी गहरी छाप पड़ेगी कि मैं ईसाई बने बिना रह न सकूँगा ।

फिर मि. बेकर का अन्तिम आधार था प्रार्थना की शक्ति । प्रार्थना मे उन्हें खूब श्रद्धा थी । उनका विश्वास था कि अन्तःकरण पूर्वक की गयी प्रार्थना को ईश्वर सुनता ही हैं । प्रार्थना से ही मूलर (एक प्रसिद्ध श्रद्धालु ईसाई) जैसे व्यक्ति अपना व्यवहार चलाते हैं , इसके दृष्टान्त भी वे मुझे सुनाते रहते थे । प्रार्थना की महिमा के विषय में मैने उनकी सारी बाते तटस्थ भाव से सुनी । मैने उनसे कहा कि यदि ईसाई बनने का अन्तर्नाद मेरे भीकर उठा तो उसे स्वीकार करने मे कोई वस्तु मेरे लिए बाधक न हो सकेगी । अन्तर्नाद के वश होना तो मैं इसके कई वर्ष पहले सीख चुका था । उसके वश होने में मुझे आनन्द आता था । उसके विरुद्ध जाना मेरे लिए कठिन और दुखःद था ।

हम वेलिंग्टन गये । मुझ 'साँवले साथी' को साथ मे रखना मि. बेकर के लिए भारी पड़ गया । मेरे कारण उन्हें कई बार अड़चने उठानी पड़ती थी । रास्ते मे हमें पड़ाव करना था, क्योकि मि. बेकर का संघ रविवार को यात्रा न करता था और बीच में रविवार पड़ता था । मार्ग में और स्टेशन पर पहले तो मुझे प्रवेश देने से ही इनकार किया गया और झक-झक के बाद जब प्रवेश मिला तो होटल के मालिक ने भोजन -गृह में भोजन करने से इनकार कर दिया । । पर मि. बेकर यो आसानी से झुकने वाले नही थे । वे होटल मे ठहरने वालो के हक पर डटे रहे । लेकिन मैं उनकी कठिनाईयों को समझ सका था । वेलिंग्टन मे भी मैं उनके साथ ही ठहरा था । वहाँ भी उन्हें छोटी-छोटी अड़चनो को सामना करना पड़ता था । अपने सद्भाव से वे उन्हे छिपाने का प्रयत्न करते थे , फिर भी मैं उन्हे देख ही लेता था ।

सम्मेलन मे श्रद्धालु ईसाइयों का मिलाव हुआ । उनकी श्रद्धा को देखकर मैं प्रसन्न हुआ । मै मि. मरे से मिला । मैने देखा क कई लोग मेरे लिए प्रार्थना कर रहे है । उनके कई भजन मुझे बहुत मीठे मालूम हुए ।

सम्मेलन तीन दिन चला । मैं सम्मेलन मे आने वालो की धार्मिकता को समध सका, उसकी सराहना कर सका । पर मुझे अपने विश्वास में , अपने धर्म में, परिवर्तन करने का कारण न मिला । मुझे यह प्रतीति न हुआ कि ईसाई बन कर ही मैं स्वर्ग जा सकता हूँ अथवा मोक्ष पा सकता हूँ । जब यह बात मैने अपने भले ईसाई मित्रो से कहीं तो उनको चोट तो पहुँची, पर मैं लाचार था ।

मेरी कठिनाइयाँ गहरी थी । 'एक ईसा मसीह ही ईश्वर के पुत्र है। उन्हें जो मानता है वह तर जाता हैं ।' --यह बात मेरे गले उतरती न थी । यदि ईश्वर के पुत्र हो सकते हैं , तो हम सब उसके पुत्र हो । यदि ईसा ईश्वर तुल्य है, ईश्वर ही है तो मनुष्य मात्र ईश्वर से समान हैं , ईश्वर बन सकता हैं । ईसा की मृत्यु से और उनके सक्त से संसार के पाप धुलते हैं , इसे अक्षरशः सत मानने के लिए बुद्धि तैयार नही होती थी । रुपक के रुप में उसमें सत्य चाहे हो । इसके अतिरिक्त, ईसाईयो का यह विश्वास है कि मनुष्य के ही आत्मा हैं , दूसरे जीवो के नहीं, और देह के नाश के साथ उनका संपूर्ण नाश हो जाता हैं , जब कि मेरा विश्वास इसके विरुद्ध था । मै ईसा को एक त्यागी , महात्मा , दैवी शिक्षक के रुप मे स्वीकार कर सकता था , पर उन्हे अद्वितीय पुरुष के रुप में स्वीकार करना मेरे लिए शक्य न था । ईसा की मृत्यु से संसार को एक महान उदाहरण प्राप्त हुआ । पर उनकी मृत्यु मे कोई गूढ़ चमत्कारपूर्ण प्रभाव था , इसे मेरा दृदय स्वीकार नही सक सकता था । ईसाइयों के पवित्र जीवन में मुझे कोई ऐसी चीज नहीं मिली जो अन्य ध्र्मावलम्बियों के जीवन में न मिली हो । उनमे होने वाले परिवर्तनो जैसे परिवर्तन मैने दूसरो के जीवन में भी होते देखे थे । सिद्धान्त की दृष्टि से ईसाई सिद्धान्तो मे मुझे कोई अलौकिकता नही दिखायी पड़ी । त्याग की दृष्टि से हिन्दू धर्मावलम्बियों का त्या मुझे ऊँचा मालूम हुआ । मै ईसाई धर्म को सम्पूर्ण अथवा सर्वोपरि धर्म के रुप में स्वीकर न कर सका ।

अपना यह हृदय-मंथन मैने अवसर आने पर ईसाई मित्रो के सामने रखा । उसका कोई संतोषजनक उत्तर वे मुझे नहीं दे सके ।

पर जिस तरह मैं ईसाई धर्म को स्वीकार न कर सका, उसी तरह हिन्दू धर्म की सम्पूर्णता के विषय मे अथवा उसकी सर्वोपरिता के विषय में भी मैं उस समय निश्चय न कर सका । हिन्दू धर्म की त्रुटियाँ मेरी आँखो के सामने तैरा करती थी । यदि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म का अंग हैं , तो वह सड़ा हुआ और बाद में जुड़ा हुआ अंग जान पड़ा । अनेक सम्प्रदायों की , अनेक जात-पाँत की हस्ती को मैं समझ न सका । अकेले वेदों के ईश्वर-प्रणीत होने का अर्थ क्या है ? यदि वेद ईश्वर प्रणित हैं तो बाइबल और कुरान क्यो नहीं ?

जिस तरह ईसाई मित्र मुझे प्रभावित करने के लिए प्रयत्नशील थे, उसी तरह मुसलमान मित्र भी प्रयत्न करते रहते थे । अब्दुल्ला सेठ मुझे इस्लाम का अध्ययन करने के लिए ललचा रहे थे । उसकी खूबियो की चर्चा तो वे करते ही रहते थे ।

मैने अपनी कठिनाईयाँ रायचन्द भाई के सामने रखी । हिन्दुस्तान के दूसरे धर्मचारियों के साथ भी पत्र-व्यवहार शुरु किया । उनकी ओर से उत्तर मिले । रायचन्द भाई के पत्र से मुझे बड़ी शान्ति मिली । उन्होने मुझे धीरज रखने और हिन्दू धर्म का गहरा अध्ययन करने की सलाह दी । उनके एक वाक्य का भावार्थ यह था, 'निष्पक्ष भाव से विचार करते हुए मुझे यह प्रतीति हुई हैं कि हिन्दू धर्म मे जो सूक्षम और गूढ़ विचार हैं, आत्मा का निरीक्षण है, दया हैं, वह दूसरे धर्मो मे नही हैं ।'

मैने सेल का कुरान खरीदा और पढ़ना शुरु किया । कुछ दूसरी इस्लामी पुस्तके भी प्राप्त की । विलायत में ईसाई मित्रो से पत्र व्यवहार शुरु किया । उनमे से एक ने एडवर्ड मेटलैंड से मेरा परिचय कराया । उनके साथ मेरा पत्र-व्यवहार चलता रहा । उन्होने एना किंग्सफर्ड के साथ मिलकर 'परफेक्ट वे' (उत्तम मार्ग) नामक पुस्तक लिखी थी । वह मुझे पढ़ने के लिए भेजी । उसमे प्रचलित ईसाई धर्म का खंड़न था । उन्होने मेरे नाम 'बाइबल का नया अर्थ' नामक पुस्तक भी भेजी । ये पुस्तकें मुझे पसन्द आयी । इनसे हिन्दू मत की पुष्टि हुई । टॉस्सटॉ की 'वैकुंठ तेरे हृदय मे हैं' नामक पुस्तक ने मुझे अभिभूत कर लिया । मुझ पर उसकी गहरी छाप पड़ी । इस पुसतक की स्वतंत्र विचार शैली, इसकी प्रौढ नीति और इसके सत्य के सम्मुख मि. कोट्स द्वारा दी गयी सब पुस्तके मुझे शुष्क प्रतीत हुई ।

इस प्रकार मेरा अध्ययन मुझे ऐसी दिशा मे ले गया , जो ईसाई मित्रो की इच्छा के विपरीत थी। एडवर्ड मेटलैंड के साथ मेरा पत्र व्यवहार काफी लम्बे समय तक चला । कवि (रायचन्द भाई) के साथ तो अन्त तक बना रहा । उन्होने कई पुस्तके मेरे लिए भेजी । मैं उन्हें भी पढ़ गया । उनमें 'पंचीकरण', 'मणिरत्नमाला', 'योगवसिष्ठका', 'मुमुक्षु-प्रकरण', 'हरि-मद्रसूरिका', 'षड्दर्शन-सम्मुचय' इत्यादि पुस्तके थी ।

इस प्रकार यद्यपि मैंने ईसाई मित्रों की धारणा से भिन्न मार्ग पकड़ लिया था , फिर भी उनके समागम मे मुझमे जो धर्म-जिज्ञासा जाग्रत की, उसके लिए तो मैं उनका सदा के लिए ऋणी बन गया य़ अपना यह संबंध मुझे हमेशा याद रहेगा । ऐसे मधुर और पवित्र संबंध बढ़ते ही गये , घटे नहीं ।

 

 

 

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