मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-12

पेज-115

झुनिया घर की ओर चली। गोबर एक क्षण दुविधा में पड़ा खड़ा रहा। फिर एकाएक सिर पर मँडराने वाली धिक्कार की कल्पना भयंकर रूप धारण करके उसके सामने खड़ी हो गई। कहीं सचमुच अम्माँ मारने दौड़ें, तो क्या हो? उसके पाँव जैसे धरती से चिमट गए। उसके और उसके घर के बीच केवल आमों का छोटा-सा बाग था। झुनिया की काली परछाईं धीरे-धीरे जाती हुई दीख रही थी। उसकी ज्ञानेंद्रियाँ बहुत तेज हो गई थीं। उसके कानों में ऐसी भनक पड़ी, जैसे अम्माँ झुनिया को गाली दे रही हैं। उसके मन की कुछ ऐसी दशा हो रही थी, मानो सिर पर गड़ांसे का हाथ पड़ने वाला हो। देह का सारा रक्त सूख गया हो। एक क्षण के बाद उसने देखा, जैसे धनिया घर से निकल कर कहीं जा रही हो। दादा के पास जाती होगी। साइत दादा खा-पी कर मटर अगोरने चले गए हैं। वह मटर के खेत की ओर चला। जौ-गेहूँ के खेतों को रौंदता हुआ वह इस तरह भागा जा रहा था, मानो पीछे दौड़ आ रही है। वह है दादा की मँड़ैया। वह रूक गया और दबे पाँव आ कर मँड़ैया के पीछे बैठ गया। उसका अनुमान ठीक निकला। वह पहुँचा ही था कि धनिया की बोली सुनाई दी। ओह! गजब हो गया। अम्माँ इतनी कठोर हैं। एक अनाथ लड़की पर इन्हें तनिक भी दया नहीं आती। और जो मैं सामने जा कर फटकार दूँ कि तुमको झुनिया से बोलने का कोई मजाल नहीं है, तो सारी सेखी निकल जाए। अच्छा! दादा भी बिगड़ रहे हैं। केले के लिए आज ठीकरा भी तेज हो गया। मैं जरा अदब करता हूँ, उसी का फल है। यह तो दादा भी वहीं जा रहे हैं। अगर झुनिया को इन्होंने मारा-पीटा तो मुझसे न सहा जायगा। भगवान! अब तुम्हारा ही भरोसा है। मैं न जानता था, इस विपत में जान फँसेगी। झुनिया मुझे अपने मन में कितना धूर्त, कायर और नीच समझ रही होगी, मगर उसे मार कैसे सकते हैं? घर से निकाल भी कैसे सकते हैं? क्या घर में मेरा हिस्सा नहीं है? अगर झुनिया पर किसी ने हाथ उठाया, तो आज महाभारत हो जायगा। माँ-बाप जब तक लड़कों की रक्षा करें, तब तक माँ-बाप हैं। जब उनमें ममता ही नहीं है, तो कैसे माँ-बाप !

होरी ज्यों ही मँड़ैया से निकला, गोबर भी दबे पाँव धीरे-धीरे पीछे-पीछे चला, लेकिन द्वार पर प्रकाश देख कर उसके पाँव बँध गए। उस प्रकाश-रेखा के अंदर वह पाँव नहीं रख सकता। वह अँधेरे में ही दीवार से चिमट कर खड़ा हो गया। उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। हाय! बेचारी झुनिया पर निरपराध यह लोग झल्ला रहे हैं, और वह कुछ नहीं कर सकता। उसने खेल-खेल में जो एक चिनगारी फेंक दी थी, वह सारे खलिहान को भस्म कर देगी, यह उसने न समझा था। और अब उसमें इतना साहस न था कि सामने आ कर कहे - हाँ, मैंने चिनगारी फेंकी थी। जिन टिकौनों से उसने अपने मन को सँभाला था, वे सब इस भूकंप में नीचे आ रहे और वह झोंपड़ा नीचे गिर पड़ा। वह पीछे लौटा। अब वह झुनिया को क्या मुँह दिखाए!

वह सौ कदम चला, पर इस तरह जैसे कोई सिपाही मैदान से भागे। उसने झुनिया से प्रीति और विवाह की जो बातें की थीं, वह सब याद आने लगीं। वह अभिसार की मीठी स्मृतियाँ याद आईं, जब वह अपनी उन्मत्त उसाँसों में, अपनी नशीली चितवनों में मानो अपने प्राण निकाल कर उसके चरणों पर रख देता था। झुनिया किसी वियोगी पक्षी की भाँति अपने छोटे-से घोंसले में एकांत-जीवन काट रही थी। वहाँ नर का मत्त आग्रह न था, न वह उदीप्त उल्लास, न शावकों की मीठी आवाजें, मगर बहेलिए का जाल और छल भी तो वहाँ न था। गोबर ने उसके एकांत घोंसले में जा कर उसे कुछ आनंद पहुँचाया या नहीं, कौन जाने, पर उसे विपत्ति में डाल ही दिया। वह सँभल गया। भागता हुआ सिपाही मानो अपने एक साथी का बढ़ावा सुन कर पीछे लौट पड़ा।

 

 

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