मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-3

पेज-13

'यह सब मन को समझाने की बातें हैं। भगवान सबको बराबर बनाते हैं। यहाँ जिसके हाथ में लाठी है, वह गरीबों को कुचल कर बड़ा आदमी बन जाता है।'

'यह तुम्हारा भरम है। मालिक आज भी चार घंटे रोज भगवान का भजन करते हैं।'

'किसके बल पर यह भजन-भाव और दान-धरम होता है;

'अपने बल पर।'

'नहीं, किसानों के बल पर और मजदूरों के बल पर। यह पाप का धन पचे कैसे? इसीलिए दान-धरम करना पड़ता है, भगवान का भजन भी इसीलिए होता है। भूखे-नंगे रह कर भगवान का भजन करें, तो हम भी देखें। हमें कोई दोनों जून खाने को दे, तो हम आठों पहर भगवान का जाप ही करते रहें। एक दिन खेत में ऊख गोड़ना पड़े तो सारी भक्ति भूल जाए।'

होरी ने हार कर कहा - अब तुम्हारे मुँह कौन लगे भाई, तुम तो भगवान की लीला में भी टाँग अड़ाते हो।

तीसरे पहर गोबर कुदाल ले कर चला, तो होरी ने कहा - जरा ठहर जाओ बेटा, हम भी चलते हैं। तब तक थोड़ा-सा भूसा निकाल कर रख दो। मैंने भोला को देने को कहा है। बेचारा आजकल बहुत तंग है।

गोबर ने अवज्ञा-भरी आँखों से देख कर कहा - हमारे पास बेचने को भूसा नहीं है।

'बेचता नहीं हूँ भाई, यों ही दे रहा हूँ। वह संकट में है, उसकी मदद तो करनी ही पड़ेगी।'

'हमें तो उन्होंने कभी एक गाय नहीं दे दी।'

'दे तो रहा था, पर हमने ली ही नहीं।'

'धनिया मटक कर बोली - गाय नहीं वह दे रहा था। इन्हें गाय दे देगा! आँख में अंजन लगाने को कभी चिल्लू-भर दूध तो भेजा नहीं, गाय दे देगा!

होरी ने कसम खाई - नहीं, जवानी कसम, अपने पछाई गाय दे रहे थे। हाथ तंग है, भूसा-चारा नहीं रख सके। अब एक गाय बेच कर भूसा लेना चाहते हैं। मैंने सोचा, संकट में पड़े आदमी की गाय क्या लूँ। थोड़ा-सा भूसा दिए देता हूँ, कुछ रुपए हाथ आ जाएँगे तो गाय ले लूँगा। थोड़ा-थोड़ा करके चुका दूँगा। अस्सी रुपए की है, मगर ऐसी कि आदमी देखता रहे।

गोबर ने आड़े हाथों लिया - तुम्हारा यही धरमात्मापन तो तुम्हारी दुरगत कर रहा है। साफ-साफ तो बात है। अस्सी रुपए की गाय है, हमसे बीस रुपए का भूसा ले लें और गाय हमें दे दें। साठ रुपए रह जाएँगे, वह हम धीरे-धीरे दे देंगे।

होरी रहस्यमय ढंग से मुस्कराया - मैंने ऐसी चाल सोची है कि गाय सेंत-मेंत में हाथ आ जाए। कहीं भोला की सगाई ठीक करनी है, बस! दो-चार मन भूसा तो खाली अपना रंग जमाने को देता हूँ।

 

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