मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-3

पेज-17

भोला स्तंभित हो गया। होरी उसे अपना भाई, बल्कि उससे भी निकट जान पड़ा। उसे अपने भीतर एक ऐसी तृप्ति का अनुभव हुआ, जिसने मानों उसके संपूर्ण जीवन को हरा कर दिया।

तीनों भूसा ले कर चले, तो राह में बातें होने लगीं।

भोला ने पूछा - दसहरा आ रहा है, मालिकों के द्वार पर तो बड़ी धूमधाम होगी?

'हाँ, तंबू-सामियाना गड़ गया है। अबकी लीला में मैं भी काम करूँगा रायसाहब ने कहा है, तुम्हें राजा जनक का माली बनना पड़ेगा।'

'मालिक तुमसे बहुत खुश हैं।'

'उनकी दया है।'

एक क्षण के बाद भोला ने फिर पूछा - सगुन करने के लिए रुपए का कुछ जुगाड़ कर लिया है? माली बन जाने से तो गला न छूटेगा।

होरी ने मुँह का पसीना पोंछ कर कहा - उसी की चिंता तो मारे डालती है दादा - अनाज तो सब-का-सब खलिहान में ही तुल गया। जमींदार ने अपना लिया, महाजन ने अपना लिया। मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा। यह भूसा तो मैंने रातों-रात ढो कर छिपा दिया था, नहीं तिनका भी न बचता। जमींदार तो एक ही है, मगर महाजन तीन-तीन हैं, सहुआइन अलग और मँगरू अलग और दातादीन पंडित अलग। किसी का ब्याज भी पूरा न चुका। जमींदार के भी आधे रुपए बाकी पड़ गए। सहुआइन से फिर रुपए उधार लिए तो काम चला। सब तरह किफायत करके देख लिया भैया, कुछ नहीं होता। हमारा जनम इसीलिए हुआ है कि अपना रक्त बहाएँ और बड़ों का घर भरें। मूल का दुगुना सूद भर चुका, पर मूल ज्यों-का-त्यों सिर पर सवार है। लोग कहते हैं, सादी-गमी में, तीरथ-बरत में हाथ बाँध कर खरच करो। मुदा रास्ता कोई नहीं दिखाता। रायसाहब ने बेटे के ब्याह में बीस हजार लुटा दिए। उनसे कोई कुछ नहीं कहता। मँगरू ने अपने बाप के करिया-करम में पाँच हजार लगाए। उनसे कोई कुछ नहीं पूछता। वैसे ही मरजाद तो सबकी है।

भोला ने करुण भाव से कहा - बड़े आदमियों की बराबरी तुम कैसे कर सकते हो भाई?

'आदमी तो हम भी हैं।'

'कौन कहता है कि हम-तुम आदमी हैं। हममें आदमियत है कहीं? आदमी वह है, जिनके पास धन है, अख्तियार है, इलम है। हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं। उस पर एक दूसरे को देख नहीं सकता। एका का नाम नहीं। एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो कोई जागा कैसे करे, प्रेम तो संसार से उठ गया।'

बूढ़ों के लिए अतीत के सुखों और वर्तमान के दु:खों और भविष्य के सर्वनाश से ज्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता। दोनों मित्र अपने-अपने दुखड़े रोते रहे। भोला ने अपने बेटों के करतूत सुनाए, होरी ने अपने भाइयों का रोना रोया और तब एक कुएँ पर बोझ रख कर पानी पीने के लिए बैठ गए। गोबर ने बनिए से लोटा और गगरा माँगा और पानी खींचने लगा।

भोला ने सहृदयता से पूछा - अलगौझे के समय तो तुम्हें बड़ा रंज हुआ होगा। भाइयों को तो तुमने बेटों की तरह पाला था।

होरी आर्द्र कंठ से बोला - कुछ न पूछो दादा, यही जी चाहता था कि कहीं जाके डूब मरूँ मेरे जीते-जी सब कुछ हो गया। जिनके पीछे अपने जवानी धूल में मिला दी, वही मेरे मुद्दई हो गए और झगड़े की जड़ क्या थी? यही कि मेरी घरवाली हार में काम करने क्यों नहीं जाती। पूछो, घर देखने वाला भी कोई चाहिए कि नहीं - लेना-देना, धरना-उठाना, सँभालना-सहेजना, यह कौन करे- फिर वह घर बैठी तो नहीं रहती थी, झाड़ू-बुहारू, रसोई, चौका-बरतन, लड़कों की देखभाल यह कोई थोड़ा काम है। सोभा की औरत घर सँभाल लेती कि हीरा की औरत में यह सलीका था - जब से अलगौझा हुआ है, दोनों घरों में एक जून रोटी पकती है, नहीं सबको दिन में चार बार भूख लगती थी। अब खाएँ चार दफे, तो देखूँ। इस मालिकपन में गोबर की माँ की जो दुरगत हुई है, वह मैं ही जानता हूँ। बेचारी देवरानियों के फटे-पुराने कपड़े पहन कर दिन काटती थी। अपने खुद भूखी सो रही होगी, लेकिन बहुओं के जलपान तक का ध्यान रखती थी। अपने देह गहने के नाम कच्चा धागा भी न था, देवरानियों के लिए दो-दो चार-चार गहने बनवा दिए। सोने के न सही, चाँदी के तो हैं। जलन यही थी कि यह मालिक क्यों है। बहुत अच्छा हुआ कि अलग हो गए। मेरे सिर से बला टली।

 

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