सोभा ने आ कर होरी को पुकारा और पटेश्वरी के रुपए उसके हाथ में रख कर बोला - भैया, तुम जा कर ये रुपए लाला को दे दो, मुझे उस घड़ी न जाने क्या हो गया था। होरी रुपए ले कर उठा ही था कि शंख की ध्वनि कानों में आई। गाँव के उस सिरे पर ध्यानसिंह नाम के एक ठाकुर रहते थे। पल्टन में नौकर थे और कई दिन हुए, दस साल के बाद रजा ले कर आए थे। बगदाद, अदन, सिंगापुर, बर्मा - चारों तरफ घूम चुके थे। अब ब्याह करने की धुन में थे। इसीलिए पूजा-पाठ करके ब्राह्मणों को प्रसन्न रखना चाहते थे। होरी ने कहा - जान पड़ता है, सातों अध्याय पूरे हो गए। आरती हो रही है। सोभा बोला - हाँ, जान तो पड़ता है, चलो आरती ले लें। होरी ने चिंतित भाव से कहा - तुम जाओ, मैं थोड़ी देर में आता हूँ। ध्यानसिंह जिस दिन आए थे, सबके घर सेर-सेर भर मिठाई बैना भेजी थी। होरी से जब कभी रास्ते में मिल जाते, कुशल पूछते। उनकी कथा में जा कर आरती में कुछ न देना अपमान की बात थी। आरती का थाल उन्हीं के हाथ में होगा। उनके सामने होरी कैसे खाली हाथ आरती ले लेगा। इससे तो कहीं अच्छा है वह कथा में जाय ही नहीं। इतने आदमियों में उन्हें क्या याद आएगी कि होरी नहीं आया। कोई रजिस्टर लिए तो बैठा नहीं है कि कौन आया, कौन नहीं आया। वह जा कर खाट पर लेट रहा। मगर उसका हृदय मसोस-मसोस कर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भी नहीं है! तांबे का एक पैसा। आरती के पुण्य और माहात्म्य का उसे बिलकुल ध्यान था। बात थी केवल व्यवहार की। ठाकुरजी की आरती तो वह केवल श्रद्धा की भेंट दे कर ले सकता था, लेकिन मर्यादा कैसे तोड़े, सबकी आँखों में हेठा कैसे बने! सहसा वह उठ बैठा। क्यों मर्यादा की गुलामी करे? मर्यादा के पीछे आरती का पुण्य क्यों छोड़े? लोग हँसेंगे, हँस लें। उसे परवा नहीं है। भगवान उसे कुकर्म से बचाए रखें, और वह कुछ नहीं चाहता। वह ठाकुर के घर की ओर चल पड़ा।
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