साँझ हो गई थी। पार्क में खूब रौनक थी। लोग हरी घास पर लेटे हवा का आनंद लूट रहे थे। गोविंदी हजरतगंज होती हुई चिड़ियाघर की तरफ मुड़ी ही थी कि कार पर मालती और खन्ना सामने से आते हुए दिखाई दिए। उसे मालूम हुआ, खन्ना ने उसकी तरफ इशारा करके कुछ कहा - और मालती मुस्कराई। नहीं, शायद यह उसका भ्रम हो। खन्ना मालती से उसकी निंदा न करेंगे, मगर कितनी बेशर्म है। सुना है, इसकी अच्छी प्रैक्टिस है, घर की भी संपन्न है, फिर भी यों अपने को बेचती फिरती है। न जाने क्यों ब्याह नहीं कर लेती, लेकिन उससे ब्याह करेगा ही कौन? नहीं, यह बात नहीं। पुरुषों में ऐसे बहुत से गधे हैं, जो उसे पा कर अपने को धन्य मानेंगे। लेकिन मालती खुद तो किसी को पसंद करे? और ब्याह में कौन-सा सुख रखा हुआ है? बहुत अच्छा करती है, जो ब्याह नहीं करती। अभी सब उसके गुलाम हैं। तब वह एक की लौंड़ी हो कर रह जायगी। बहुत अच्छा कर रही है। अभी तो यह महाशय भी उसके तलवे चाटते हैं, कहीं इनसे ब्याह कर ले, तो उस पर शासन करने लगें, मगर इनसे वह क्यों ब्याह करेगी? और समाज में दो-चार ऐसी स्त्रियाँ बनी रहें, तो अच्छा, पुरुषों के कान तो गर्म करती रहें। आज गोविंदी के मन में मालती के प्रति बड़ी सहानुभूति उत्पन्न हुई। वह मालती पर आक्षेप करके उसके साथ अन्याय कर रही है। क्या मेरी दशा को देख कर उसकी आँखें न खुलती होंगी? विवाहित जीवन की दुर्दशा आँखों देख कर अगर वह इस जाल में नहीं फँसती, तो क्या बुरा करती है! चिड़ियाघर में चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। गोविंदी ने ताँगा रोक दिया और बच्चे को लिए हरी दूब की तरफ चली, मगर दो ही तीन कदम चली थी कि चप्पल पानी में डूब गए। अभी थोड़ी देर पहले लॉन सींचा गया था और घास के नीचे पानी बह रहा था। उस उतावली में उसने पीछे न फिर कर एक कदम और आगे रखा तो पाँव कीचड़ में सन गए। उसने पाँव की ओर देखा। अब यहाँ पाँव धोने के लिए पानी कहाँ से मिलेगा? उसकी सारी मनोव्यथा लुप्त हो गई। पाँव धो कर साफ करने की नई चिंता हुई। उसकी विचारधारा रूक गई। जब तक पाँव साफ न हो जायँ, वह कुछ नहीं सोच सकती।
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